निशा यादव

जनसत्ता 30 सितंबर, 2014: दिल्ली मुंबई जैसे महानगरों की चकाचौंध और भाग-दौड़ भरी जिंदगी में आज इंसान इतना व्यस्त हो गया है कि उसके पास अपनों या परायों के लिए भी वक्त नहीं है। गगनचुंबी इमारतें लोगों को अपनी ओर आकर्षित करती हैं। लेकिन इसके पार किसी को नहीं दिखता कि इन इमारतों की दीवारें अंदर से कितनी खोखली हो चुकी हैं। इन इमारतों में रहने वाले लोग अपने अगल-बगल या आमने-सामने रहने वालों को भी ठीक से नहीं जानते, सिवाय इसके कि कभी किसी बात पर ‘सॉरी’ या ‘थैंक्स’ कह दिया। यही इनका रिश्ता है। बीते डेढ़-दो दशक में भारत ने जितनी तकनीकी प्रगति की है, उसमें सुविधाओं को जुटाने के लिए एकल परिवारों को आर्थिक तौर पर मजबूत होने के लिए मजबूर किया है। इस क्रम में बढ़ती ललक ने मानवीय रिश्तों के स्पंदन को सुप्त कर दिया है।

मैं पिछले कुछ सालों से दिल्ली में अपने पति और सात वर्षीय बेटी के साथ रह रही हूं। लेकिन पति के देहरादून में तबादले के कारण साल भर से बेटी के साथ अकेले ही रहती हूं। अकेले रहने का अहसास शुरू में जरूर हुआ, लेकिन अच्छे स्कूल में बेटी के दाखिले के लिए बेले पापड़ याद आए और फिर उसकी पढ़ाई की चिंता में अकेलेपन की फिक्र जाती रही। अब सुबह बेटी को स्कूल छोड़ने की जल्दी और फिर वापस आकर फ्लैट का दरवाजा बंद। दोपहर बाद बच्ची को बस स्टॉप से वापस लेने और इसी बीच रोजमर्रा के जरूरी सामान के साथ लौट कर फिर घर का दरवाजा बंद। कई बार पूरा दिन भी बंद दीवारों के बीच उगता और अस्त हो जाता है। बेटी के होमवर्क, खुद की पढ़ाई-लिखाई, अखबार, पत्रिकाएं, टीवी, कम्प्यूटर और मोबाइल- इन सबके सहारे दिन कटने लगे।

हर रोज की तरह उस दिन भी मैं दोपहर दो बजे बेटी को स्कूल बस से लेने के लिए निकली थी। सामने चौराहे पर आइसक्रीम वाला खड़ा था। वहीं मोबाइल पर बतियाती दो युवतियां अपनी पसंद की आइसक्रीम लेने में मशरूफ थीं। थोड़ा आगे एक किशोर एक कार की सफाई कर रहा था। उनके पास से थोड़ा आगे गुजरते अचानक एक चीखती-सी आवाज ने मेरे तेज कदमों को रोक दिया। बहुमंजिला इमारत से आई चीखने की आवाज किसी लड़की की थी जो जोर-जोर से शायद मोबाइल पर किसी से बात करने की कोशिश कर रही थी- ‘पापा नहीं रहे… तुम सुन रहे हो न…!’ जाहिर है, उस कई मंजिला इमारत में काफी लोग रह रहे थे, लेकिन चीख-पुकार के बावजूद कोई बाहर नहीं आया था। मैं भी कुछ सेकेंड कशमकश में रही और आखिरकार बस स्टॉप की तरफ आगे निकल गई। पंद्रह मिनट बाद बेटी को लेकर वापस उसी गली से गुजरी, तब भी वहां कोई पड़ोसी नहीं पहुंचा था। थोड़ा आगे गई तो सामने गली से रुआंसे चेहरे के साथ दो बुजुर्ग महिलाएं आती दिखीं। लेकिन उस इमारत में रह रहे पड़ोसियों के दरवाजे बंद ही रहे। मुश्किल वक्त में उस लड़की की चीख को अपनों तक पहुंचाने का काम मोबाइल ने किया। पहली बार मुझे तकनीकी तरक्की के दौर में संचार क्रांति की उपयोगी भूमिका और परस्पर मेलजोल के रिश्तों के मृत होने का अहसास हुआ। उस दिन के बाद भी रोज उसी गली से सुबह-दोपहर का आना-जाना बना हुआ है, लेकिन उस बहुमंजिला इमारत के पास से गुजरते जैसे दीवारों से कोई चीख मेरे कानों में उतर कर कहती है हर बार कि इंसानियत के रिश्ते की मौत यहीं हुई थी मेरे सामने। मैं ठिठक कर उधर देखती हूं और फिर कदम तेज दौड़ने लगते हैं!

 

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