ज्योति सिडाना

एक निजी यात्रा की वापसी के समय ट्रेन में बैठे एक बुर्जुग यात्री ने अपने सामने की बर्थ पर बैठी युवती से सवाल किया कि आपके पति क्या करते हैं! उसने जब जवाब दिया कि उसकी शादी नहीं हुई है और न ही उसका शादी करने का कोई इरादा है तो उस बुजुर्ग यात्री ने उस युवती को देखा तो मानो वे कहना चाहते हैं कि तुम्हारा जीवन अधूरा है। मैंने उनसे सवाल किया कि आप ईमानदारी से बता सकते हैं कि क्या आप अपने विवाह से संतुष्ट रहे? वे कुछ असहज हुए। दरअसल, धार्मिक-सांस्कृतिक अनुष्ठानों से संपन्न विवाह के जरिए पुरुष को पत्नी के रूप में एक लड़की प्रदान कर दी जाती है। वही लड़की जब पत्नी के रूप में पुत्र के बजाय पुत्रियों को जन्म देती है तो उसे सामाजिक तिरस्कार का सामना करना पड़ता है। एक ऐसे परिवेश को समाज में रचा गया है जहां स्त्री की अस्मिता पुरुष से इतर नहीं है। यह पुरुष न केवल पुत्र, पति, पिता या भाई है, बल्कि यह धर्म, जाति, राजनीति और अर्थतंत्र भी है। इसमें एकल महिला का कोई स्थान नहीं है। उसे शायद वह सार्वजनिक संपत्ति के रूप में देखता है, क्योंकि मां, पत्नी, पुत्री, बहन और यहां तक कि महिला मित्र भी उसकी निजी संपत्ति है। विभिन्न कार्यस्थलों पर काम करने वाले उच्च शिक्षित पुरुष सहकर्मियों का सोच ऐसा है कि वे स्त्री को किसी काम का श्रेय नहीं दे सकते।

सवाल है कि एक नागरिक के रूप में ‘क्या चुने या क्या न चुने’ का निर्धारण करने की आजादी महिला को क्यों न हो? एक महिला क्या पहनती है, कहां जाती है, कितने घंटे काम करती है, कैसे रहती है आदि सवाल जब एक पुरुष पूछता है तो उस समय वह नागरिक नहीं है, बल्कि एक ऐसा सिपाही है जिसने नैतिकता की व्याख्या को गढ़ने का अधिकार ले लिया है और इसलिए वह खाप पंचायत में पंच बन कर उस लड़के और लड़की की हत्या की घोषणा कर देता है, जिन्होंने नागरिक के रूप में ‘चुनने के अधिकार’ का प्रयोग किया है। एक महिला को इसलिए फांसी दे दी जाती है कि उसने एक ऐसे शक्तिशाली पुरुष को मार दिया, जिसने उसके साथ बलात्कार किया था। यह पुरुष न्यायाधीश ‘धर्म’ है जो महिला के अधिकार की खुद व्याख्या करता है। ‘एकल महिला’ पुरुष को इसलिए अस्वीकारती है कि वह धर्म, जाति, नस्ल, पूर्वाग्रह, गर्व आदि की उन सीमाओं से बाहर आना चाहती है, जिन्हें पुरुषों ने इसलिए रचा है, ताकि वे आधी आबादी पर अपने प्रभुत्व को बनाए रखें।

किसी एकल महिला का पुरुष या महिला सहकर्मी जब उसे कहे कि आपकी मुस्कान तब स्वाभाविक हो सकती है, जब आपके हाथ में किसी पुरुष का हाथ और साथ हो, तब पुरुष के द्वारा निर्मित किए गए उस परिवेश की वास्तविकता साफ नजर आ जाती है। पुरुष स्वाभाविक रूप से स्वतंत्रता के मूल्य को महिलाओं की जिंदगी का हिस्सा नहीं बनाना चाहता।

सवाल है कि क्या पुरुषों ने विवाह को स्वतंत्रता और समानता के मूल्यों के अंतर्गत निर्मित करने की कोशिश की या फिर उनके लिए पत्नी महज दहेज के साथ आने वाली एक दासी है जो उसकी हर जरूरत को मुस्कराते और उसकी अधीनता को जाहिर करते हुए पूरा करने के लिए बाध्य है। अनेक एकल पुरुष भी हैं, लेकिन उनसे शायद उतने सवाल नहीं किए जाते। लेकिन महिला बिना जीवन साथी के अकेले प्रगति के रास्ते चुनने की कोशिश करे तो पुरुष को यह बौद्धिक चुभन होती है कि उसने मेरा साथ लिए बिना लक्ष्य की प्राप्ति कर ली तो भविष्य में उसे मेरे वर्चस्व का डर नहीं रहेगा। पुरुष को यह समझना चाहिए कि ‘एकल महिला’ कोई अधीनस्थ नहीं है, लेकिन ‘एकल’ होने का अर्थ ‘अकेले’ होना नहीं है। कोई भी एकल महिला समाज के विकास में बराबर की सहभागी है।

 

 

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