पिछले दिनों वित्तमंत्री अरुण जेटली का बजट भाषण सुनते हुए प्रसिद्ध अर्थशास्त्री-राजनयिक जॉन केनेथ गॉलब्रेथ और उनकी पुस्तक ‘द अफ्लुएंट सोसाइटी’ का स्मरण हो आया। इसमें उन्होंने ‘सामाजिक संतुलन का तसव्वुर पेश किया। सामाजिक संतुलन का मतलब है निजी और सार्वजनिक व्यय के बीच स्वीकार्य संबंध। शिक्षा, जनस्वास्थ्य, सार्वजनिक परिवहन, सामाजिक सुरक्षा जैसे अनेक क्षेत्रों में इतना सार्वजनिक व्यय होना चाहिए कि इन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए आम आदमी की जेबें न ढीली हों, उनका खुद का बजट न गड़बड़ाए।

मोदी सरकार का यह बजट तीन मामलों में दिलचस्प है। पहला, लगभग तीस साल बाद यह एक ऐसी सरकार द्वारा पेश किया जा रहा है, जो पूर्ण बहुमत में है। इसलिए सरकार को अपनी नीति और आकांक्षाओं के अनुरूप बजट बनाने की पूरी स्वतंत्रता है। दूसरे, चौदहवें वित्त आयोग की रिपोर्ट आ चुकी है और इसके सुझाव एक अप्रैल 2015 से लागू होंगे और इकतीस मार्च 2020 तक लागू रहेंगे। तीसरा, सरकार ने योजना आयोग भंग करके नीति आयोग बनाया है, जो दिशात्मक और नीति निर्धारक ‘थिंक टैंक’ है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लालकिले की प्राचीर से कहा था कि देश तीन ‘डी’- डेमॉक्रेसी (लोकतंत्र), डेमॉग्राफी (जनांकीय) और डिमांड (मांग) से समृद्ध है। वास्तव में ये तीन ‘डी’ तभी कारगर होंगे जब देश में स्वास्थ्य, शिक्षा और अन्य सार्वजनिक सेवाओं का पुख्ता इंतजाम हो और इन तक देशवासियों की आसान पहुंच हो। मानवीय और लोकतांत्रिक चेतना पैदा करने के लिए शिक्षा की आवश्यकता है।

अच्छी शिक्षा और स्वास्थ्य से बेहतर मानव पूंजी का निर्माण होता है। जाहिर है, जब यह मानव पूंजी अर्थव्यवस्था में विनियोजित होगी तो मांग उत्पन्न करेगी। कुल मिला कर सामाजिक क्षेत्र मजबूत होना चाहिए।

चूंकि मोदी ‘सबके विकास’ की बात करते हैं, ऐसी आशा थी कि इस बजट में सामाजिक और लोक कल्याणकारी योजनाओं पर विशेष ध्यान दिया जाएगा। लेकिन इसके विपरीत इन योजनाओं और कार्यक्रमों में काफी राशि की कटौती कर दी गई।

मसलन, स्कूली शिक्षा के मद में आबंटन पिछले वर्ष की अपेक्षा तेईस फीसद कम कर दिया गया। इसका कौशल निर्माण पर सीधा असर पड़ेगा। जबकि उच्च शिक्षा के मामले में आबंटन में तीस फीसद की मामूली बढ़ोतरी की गई। कहा जाता है कि बच्चे देश का भविष्य होते हैं। लेकिन इस बजटीय आबंटन में बच्चों से संबधित योजनाओं या कार्यक्रमों में छप्पन फीसद से भी अधिक की कटौती कर दी गई। मानव विकास के अहम पहलू, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण के मद में भी सोलह फीसद की कटौती की गई।

गालब्रेथ ने अपनी एक अन्य पुस्तक ‘इकॉनोमिक्स आॅफ इनोसेंट फ्रॉड: ट्रुथ आॅफ आवर टाइम’ में बताया है कि अमेरिकी समाज में कैसे ‘पूंजीवाद’ के लिए अब ‘बाजार अर्थव्यवस्था’ शब्द का इस्तेमाल किया जाने लगा है। यथार्थ को छिपाने के लिए मनोहारी शब्द-जाल बुना जाता है।

गालब्रेथ इसे ‘निरीह कपट’ का सटीक उदाहरण मानते हैं। ‘सबका साथ और सबका विकास’ भी ऐसा ही मासूम धोखा है। सच्चाई तो यह है कि एक तरफ संपत्ति कर को हटाया गया तो दूसरी तरफ कॉरपोरेट टैक्स तीस फीसद से घटा कर पच्चीस फीसद कर दिया गया। पूंजीपतियों के विकास की राहें आसान की जा रही हैं तो गरीब लोगों से उनके रोजगार की गारंटी छीनी जा रही है। इससे निश्चय ही ‘सामाजिक संतुलन’ बिगड़ेगा।

आतिफ़ रब्बानी

 

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