मोबाइल आज के समय में हमारी जरूरत बन चुका हैं। हर चीज में मोबाइल का इस्तेमाल होता है, लेकिन आज के युवा ने मोबाइल में ही अपनी एक अलग दुनिया बना ली है। वे मोबाइल के जरिए दूर बैठे लोगों के साथ सपंर्क में बने रहते हैं, लेकिन जो लोग उनके पास हैं उनसे ही दूर हो जाते हैं। आनलाइन नए दोस्त बनाते हैं, उनसे बात करते हैं, पर अपने ही मां-बाप के लिए उनके पास समय नहीं होता।

आज-कल के लोग खाना-पीना भूल सकते हैं, पर अपना मोबाइल नहीं। कभी-कभी लगता है कि वे फोन को नहीं, बल्कि फोन उन्हें चला रहा है। मोबाइल का अविष्कार लोगों की जिंदगी को आसान बनाने के लिए हुआ था, पर अब ऐसा लगता है जैसे अब मोबाइल फोन का इस्तेमाल लोगों पर हावी हो रहा है। इससे हो यह रहा है कि लोगों का अपने मस्तिष्क से काम लेना कम हो गया है और तकनीकी संसाधनों पर निर्भरता बढ़ रही है। ऐसे में शरीर और विवेक से स्तर पर जो कमजोरियां विकसित होंगी, उसकी भरपाई संभव नहीं होगी।
शीतल यादव, फरीदाबाद, हरियाणा

खगोलीय उथल-पुथल

उल्कापात दिसंबर या जनवरी के प्रथम सप्ताह में गिरते हुए ज्यादातर देशों में देखे गए। तारों का टूट कर पृथ्वी की कक्षा में गिरना अलग बात है। यह एक खगोलीय घटना है, जिसमें किसी ग्रह पर आकाश के एक ही स्थान से बार-बार कई उल्काएं बरसते हुए प्रतीत होती हैं। यह उल्का वास्तव में खगोलीय मलबे की धाराओं के ग्रह के वायुमंडल पर अति-तीव्रता से गिरने से प्रस्तुत होते हैं। अधिकतर का आकार बहुत ही छोटा होता है, इसलिए वे सतह तक पहुंचने से बहुत पहले ही ध्वस्त हो जाते हैं। अधिक घनी उल्का वर्षा को उल्का बौछार (उल्कापात) कहते हैं।

दरअसल, वे तारे न होकर छोटे आकाशीय पिंड होते हैं, जिन्हें विज्ञान की भाषा में ‘उल्का’ कहा जाता है। जब कोई उल्का पृथ्वी के वायुमंडल में प्रवेश करती है तो अपनी तीव्र गति से उत्पन्न हुए घर्षण के कारण वायुमंडल में जल उठती है। इस प्रक्रिया से उत्पन्न हुए प्रकाश के कारण टूटते हुए तारे प्रतीत होते हैं। इस प्रकार की खगोलीय घटना को छात्र-छात्राएं, खगोल शास्त्र में रुचि रखने वालों को अवश्य देखना चाहिए।

इसी तरह उल्का पिंडों की बात करें तो वैज्ञानिकों की नजर उल्कापिंडों पर रहती है। हर साल सोशल मीडिया पर खबर आती है कि अंतरिक्ष से धरती पर उल्का पिंड गिरने की संभावना है। ऐसे उल्कापिंडों का परिभ्रमण दोबारा कई वर्षों बाद फिर से संभव होता आ रहा है। पृथ्वी से टकराने का ऐसी अफवाहों पर अंकुश लगाना आवश्यक है, क्योंकि अंतरिक्ष में करोड़ों उल्का पिंड तैरते रहते हैं, जिनकी पृथ्वी से दूरी लाखों-करोड़ों मील है। सभी ग्रहों का अपना गुरुत्वाकर्षण है।

ऐसे छोटे-छोटे उल्का पिंड पृथ्वी के करीब यानी लाखों किलोमीटर और अत्यंत तेज रफ्तार से गुजरते रहते हैं। कुछ पृथ्वी की कक्षा में आने के पूर्व नष्ट हो जाते है। भविष्य में संभावित खतरों से पृथ्वी वासियों की रक्षा के लिए नासा वैज्ञानिक, खगोल शास्त्री आदि की अंतरिक्ष पर नजरें है। खबरों की अफवाहों को फैलने से रोका जाए।
संजय वर्मा ‘दृष्टि’, धार, मप्र