हालांकि पहले के बनिस्पत स्त्रियों की दुनिया का विस्तार जमीनी स्तर पर कुछ बेहतर हुआ है। अब महिलाएं चारदिवारी से निकल कर अपने लिए क्या सही है, क्या गलत, अब समझने लगी है। लेकिन अभी भी उनके कर्तव्य असंख्य है और अधिकार लगभग नगण्य है। दुनिया और समाज अभी भी अक्सर स्त्री के अधिकार और कर्तव्य को अपने सुविधा के अनुसार परिभाषा तय करता है, जिसमें स्त्री के कर्तव्यों की व्यापकता है, पर अधिकार सीमित हैं।

आज के दौर में भी लोग स्त्री से उम्मीद करते हैं कि उनके आर्थिक कर्तव्यों में भागीदारी तो करें, पर प्रभुत्व सर्वत्र पुरुष का ही बना रहे। अगर स्त्री थोड़ा भी ऊंच-नीच करती है, अपने घर और बाहर किसी भी कर्तव्य में थोड़ी भी कमी की गुंजाइश करती है, तो उस पर हजार प्रश्न खड़े हो जाते हैं।

एक महिला के संपूर्ण जीवन की सार्थकता भारतीय समाज सामाजिक जीवन की उपलब्धियों से न करके उसके पारिवारिक दायित्व की पूर्ति के चश्मे से ही करता है। आज भी घर-परिवार देखने और संभालने की जिम्मेदारी स्त्री की ही होती है और आर्थिक जिम्मेदारी पुरुष की होती है। लेकिन जिन घरों में स्त्री घरेलू के साथ आर्थिक दायित्व में भी अपना सहयोग करती है, वहां भी घरेलू प्रबंधन स्त्री के जिम्मे और वित्तीय प्रबंधन पर पुरुष का अधिकार रहता है। यह एक तरह से स्त्री के अधिकारों का हनन ही है।

दरअसल लोगों के मन में एक अवधारणा है कि स्त्री वित्तीय प्रबंधन को सही ढंग से नहीं कर सकती। जबकि अधिकांश परिवारों में देखा गया है कि परिवार के आर्थिक संकट के समय स्त्री के बूंद-बूंद बचत किए गए धन के द्वारा ही परिवार को विपत्ति से निकाल लिया जाता है। स्त्री वित्तीय प्रबंधन में भी कुशल होती है। घरेलू कार्यों के प्रबंधन में उसको यह अधिकार नहीं देने के पीछे दरअसल समाज की दोयम दर्जे के मानसिकता है, न कि स्त्री की अकुशलता।

अगर हम भारतीय समाज में तुलनात्मक रूप से देखें तो अक्सर एक लड़के को परिवारिक सदस्यों के द्वारा जितना प्रोत्साहन आर्थिक रूप से सक्षम होने के लिए मिलता है। उतना लड़की को नहीं मिलता। बल्कि लड़के की तुलना में छंटाक भर भी नहीं मिलता है। इसको मान लिया जा सकता है कि एक प्रशासकीय पद के दोनों इच्छुक हैं तो एक लड़के को परिवारिक समर्थन और धन की सहायता अध्ययन के लिए आसानी से मिल जाता है।

इसके अलावा, मानसिक सकारात्मक सहयोग भी मिलता है। दूसरी ओर, एक लड़की को वही लक्ष्य प्राप्त करने के लिए आमतौर पर अपने ही परिवार से और असहयोगात्मक रवैया और विरोध मिलता है और उस पर खर्च करना भी व्यर्थ माना जाता है। इसका कारण है पारिवारिक खांचे का ताना-बाना, जिसमें लड़की को पराया धन कहा जाता है और लड़के कुलदीपक हो जाते हैं। एक ही लक्ष्य पाने के लिए स्त्री को पुरुष के अपेक्षा दोहरी मशक्कत करनी पड़ती है।

अब समय आ गया है कि जिस तरह हर क्षेत्र में स्त्रियां अपने आपको साबित और अपनी कुशलता का प्रदर्शन कर रही हैं, लोगों को अपनी दोयम दर्जे वाली मानसिकता को बदलना होगा। इसका एक ही मूल मंत्र है ‘शिक्षित नारी विकसित नारी’। शिक्षा के द्वारा ही स्त्री अपने अधिकारों के प्रति जागरूक और आर्थिक संपन्नता के अधिकारों की लड़ाई में अपना स्थान पा सकती है।
रेखा शाह, बलिया, यूपी</p>