प्रसिद्ध शायर जिगर मुरादाबादी ने लिखा है कि ‘हम आह भी भरते हैं तो हो जाते हैं बदनाम, वह कत्ल भी करता है तो चर्चा नहीं होता।’ यह नज्म हमारे समाज के उस दर्पण को दिखाती है जो एक स्त्री के प्रति निम्न दर्जे का नजरिया रखता है। यह पंक्ति बताती है कि मामला चाहे कुछ भी हो, बदनामी का दाग औरत के आंचल पर ही आएगा। हमें समझना होगा कि हम आज भी महिलाओं के प्रति एक खास और नकारात्मक नजरिया रखते हैं। दरअसल, महिलाएं आज भी अपनी बराबरी के लिए जद्दोजहद कर रही हैं।

हाल ही में इंडोनेशिया में एक मामला सामने आया जहां पर एक औरत ने गैर मर्द के साथ संबंध स्थापित किए, जिसकी सजा में औरत को सौ कोड़े और पुरुष को मात्र 15 कोड़े मारे गए। इसके अलावा हाल ही में हमारे देश में ‘बुली बाई’ ऐप का मामला सामने आया, जिस पर खास समुदाय की औरतों की बोली लगाने की कोशिश की जाती थी। हाल ही में अलवर कांड से हर कोई परिचित है।

इसके अलावा, हम अच्छी तरह जानते हैं कि तलाकशुदा औरतों का समाज में रहना कितना कठिन है। इसका एक हाल ही में उदाहरण आया है जिसमें दक्षिण भारतीय फिल्म की अभिनेत्री सामंथा रूथ को ‘ट्रोल सेना’ ने मानसिक रूप से प्रताड़ित किया। हम इस मानसिकता से अंदाजा लगा सकते हैं।
हमने बीते दिनों देखा कि केंद्र सरकार ने लड़कियों की विवाह की उम्र बढ़ाने का फैसला किया।

क्या केवल लड़कियों की वैवाहिक उम्र सीमा बढ़ा देने से वह फैसले लेने के लिए स्वतंत्र हो जाएंगी? क्या वह अपने हिसाब से अपना भविष्य बनाने के लिए स्वतंत्र हैं? क्या वे अपनी मर्जी से अपना जीवनसाथी चुनने के लिए स्वतंत्र हैं? क्या वे प्रेम करने के लिए स्वतंत्र हैं? अगर इसका जवाब गंभीरता से खोजा जाए तो इसका जवाब होगा- ‘नहीं’। इसके अलावा, कई राज्यों के कार्यक्रमों में अश्लील गाने हों या आर्केस्ट्रा मैं जमी भीड़, इस बात को प्रदर्शित करती है कि हम स्त्री के प्रति के कितना हीन नजरिया रखते हैं, मानो वह मनोरंजन का साधन हो।

इसके अलावा भी हम समाज में किसी ऐसे जोड़े को देख लें जिसमें स्त्री का कद उसके पति से बड़ा हो या उसकी उम्र बड़ी हो तो उस वैवाहिक जोड़े को उपहास की दृष्टि से देखा जाता है। एक अफसोसनाक चलन हमारे समाज में यह है कि आजकल नवविवाहित पत्नियों ने अपने नाम के साथ अपने पति का नाम जोड़ना शुरू कर दिया है। क्या यह इस बात को सिद्ध करता है की इन महिलाओं का पति के बिना कोई वजूद नहीं है?

दरअसल, ये सब घटनाएं इस बात की ओर इशारा करते हैं कि औरतों के प्रति पुरुषवादी मानसिकता आज भी उतनी ही हावी है, जितनी अतीत में थी। वह घर में महफूज नहीं है, सड़क पर उनकी हिस्सेदारी नहीं है, दफ्तर उनका संसार नहीं। वह है यहां तो केवल एक शरीर। स्थिति तब और भयावह हो जाती है, जब चारदिवारी के अंदर औरतों पर अत्याचार होता है। फिर चाहे हिंसा हो या वैवाहिक बलात्कार जैसे मामले।

इसलिए अब समय की मांग है और हमारी जरूरत है कि हम स्त्री के अधिकार की समानता के लिए केवल कागजों पर ही आदर्श की बातें नहीं करें, बल्कि उनकी सुरक्षा के लिए हर वह कदम उठाएं जो जरूरी हो। दूसरे, समाज को भी अब नए सिरे से एक नजरिया पैदा करना होगा जो स्त्री की समानता का पक्षधर हो। तभी जाकर हम एक आदर्श राष्ट्र की कल्पना कर सकते हैं और विकास के बहुआयामी लक्ष्य को पा सकते हैं। लैंगिक समानता हमारे लिए कितनी महत्त्वपूर्ण है, इस बात का अंदाजा केवल इससे लगा सकते हैं कि संयुक्त राष्ट्र के सतत विकास लक्ष्यों में लैंगिक समानता को पांचवे पायदान पर रखा गया है।