जिन बावड़ियों की चर्चा करते हुए बावड़ियों का शहर बूंदी के बारे में कहा गया है, उसे धार्मिक दृष्टि से छोटी काशी भी कहा जाता रहा है। यहां देसी पर्यटक कम, विदेशी अधिक आते हैं। बावड़ियों के इस शहर में कुछ दिन ठहरकर ही आगे बढ़ा करते हैं। लेख में आज का जरूरी सवाल उठाया है कि ये बावड़ियां आसन्न संकट जल का समाधान भी कर सकती हैं।

हमारी नष्ट होती विरासत बेशक चिंता का विषय है। बावड़ियां और कुएं क्यों लावारिस, बेहाल और नजरअंदाजी के शिकार हुए हैं, यह हम सबसे छिपा हुआ नहीं है। अति विकास, भौतिकवाद और आराम पसंदगी समस्या के मूल में है। हम पानी का अति दोहन कर रहे हैं, इसलिए ट्यूबवेल के नाम पर धरती की छाती छलनी कर डाली है। जितना पानी अंदर नहीं जाता, उससे अधिक उलीच दे रहे हैं।

खेती पानी के बिना संभव नहीं है। बूंदी बावड़ियों का शहर है, वैसे ही कोटा-बूंदी धान का कटोरा या मिनी पंजाब के नाम से इसलिए जाना जाता है कि यहां धान जमकर होता है। इसलिए पानी के लिए ट्यूबवेल के बिना कोई खेत नहीं है। कुएं और बावड़ियों में पानी नहीं बच सका है। पानी पाताल तोड़ ट्यूबवेल करने पर ही मिल पाता है, इसलिए कुएं और बावड़ियां पानी से रीत गए। इनके पानी का उपयोग इसलिए भी नहीं हो पाता है कि नल से घर तक पानी चाहिए। ऐसे में कौन बावड़ियों तक जाए! फिर बावड़ियों में पानी बचा ही कितना है?

लेख में बावड़ियों को मेलों से जोड़कर आज के अनुकूल बनाने का सुझाव अच्छा है। बूंदी में नवंबर माह में हर साल बूंदी उत्सव मनाया जाता है और उस दौरान देशी-विदेशी यहां पधारते हैं। मेले के दौरान सांस्कृतिक उत्सव में जुलूस, खेल, नृत्य आदि किए जाते हैं। उस समय इन बावड़ियों की साफ-सफाई की तरफ ध्यान जाता है और कुछ देखरेख, टूट-फूट की मरम्मत संभव हो पाती है।

सवाल है कि ये विरासतें कैसे आज के अनुकूल बने? किले, कुएं बावड़ियां अगर आज की जरूरतें पूरी कर सकें तभी बची रह सकती हैं। पानी मानवता के सामने आसन्न संकट है। बावड़ियां कुएं और तालाबों का महत्त्व पानी को संजोने के लिए है। तालाबों को जितना संजोया जाए, आज की जरूरत भर पानी की कमी दूर हो सकती है। बावड़ियां भी जल संकट में मददगार हो सकती हैं।
रमेश चंद मीणा, बूंदी, राजस्थान।

शोर की बाधा

केंद्रीय और राज्य स्तरीय बोर्ड की परीक्षाएं नजदीक हैं। विद्यार्थी पूरे मनोयोग से पढ़ाई में जुटे हैं। इसी दौरान सामाजिक समारोहों की भी धूमधाम है, जिसमें डीजे और बैंड-बाजे का शोर असहनीय हो जाता है। सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के अनुसार रात दस बजे से सुबह छह बजे तक लाउडस्पीकर और डीजे बजाने पर पूरी तरह से प्रतिबंध है।

नियमों की अवहेलना करने की हालत में संबंधित व्यक्ति या संस्था के विरुद्ध ध्वनि प्रदूषण विनियमन व नियंत्रण के नियमों के तहत कार्रवाई की जा सकती है। विभिन्न राज्य सरकारों ने इस मामले में कड़े कानून बनाए हैं, लेकिन नियमों का उल्लंघन फिर भी होता आया है।

पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 की धारा 15 को ध्वनि प्रदूषण विनियमन व नियंत्रण नियमावली, 2000 के नियम 5/6 के तहत यह गैर जमानती अपराध है, जिसमें पांच वर्ष तक की सजा और एक लाख तक का जुर्माना देना पड़ सकता है। ध्वनि प्रदूषण नियमों में लाउडस्पीकर और दूसरे वाद्य यंत्रों के प्रयोग को लेकर कुछ जानकारियां और प्रतिबंध हैं।

रिहाइशी इलाकों में दिन के समय ध्वनि का स्तर पचपन डेसीबल से अधिक और रात के समय पैंतालीस डेसिबल से अधिक नहीं होना चाहिए। कानूनन तो पूर्व अनुमति के बगैर इन साधनों का उपयोग करने की व्यवस्था भी नहीं है। जबकि सच्चाई यह है प्रतिबंधित समय के दौरान भी तेज कानफोडू संगीत बजाया जाता है।

दरअसल, कानूनों की कमी नहीं है। परेशानी पड़ने पर न्यायालय न्यायालय का दरवाजा भी खटखटाया जा सकता है और वकील भी नियुक्त किया जा सकता है। पर एक आम आदमी के पास इतना वक्त कहां होता है कि वह कानूनी पचड़े में खुद को झोंक दे। फिर आम आदमी आस-पड़ोस की बात सोच कर रिश्ते बिगड़ने के डर से इस तरह के झंझट में नहीं पड़ता। यहां जिम्मेदारी दूसरे पक्ष की कुछ ज्यादा हो जाती है।

तेज ध्वनि हमारे गानों और कानों को भी खराब कर रही है आने वाले वर्षों में भारत में होने वाले बहरों की संख्या बढ़ती जाएगी। इस लिहाज से देखें तो आम जनता को भी इतना संवेदनशील होने की जरूरत है कि बुजुर्ग बीमारों और विद्यार्थियों की कठिनाइयों को ध्यान में रखते हुए ही कोई आयोजन करें।
अमृता पांडे, नैनीताल।

आपदा की त्रासदी

तुर्किये और सीरिया में लोग सोमवार सुबह नींद से उठे भी नहीं थे कि प्राकृतिक आपदा ने उन्हें आ घेरा। रिक्टर पैमाने पर 7.8 तीव्रता वाले भूकंप से दोनों देश कुदरत के कहर से दहल उठे। यहीं नहीं, इसके कुछ ही घंटों भीतर 7.6 और 6.0 तीव्रता के दो और भूकंप भी आए। इस आपदा में कई हजार लोगों की जान चली गई और हजारों जख्मी हुए। भूकंप से हजारों इमारतें ढह गर्इं, कड़ाके की ठंड और बारिश से राहत कार्यों में बाधा आई। खराब मौसम ने बेघर हुए लोगों की मुश्किलें और बढ़ा दीं। भूकंप से प्रभावित लोग बचने के लिए बर्फीली सड़कों पर जमा हो गए।

तुर्किये में विनाशकारी भूकंप का मंजर ऐसा था कि देखने वाले की रूह कांप उठे। देखते ही देखते चंद पलों में इमारतें धराशाई हो गर्इं। कुछ जगहों का मंजर तो ऐसा था कि लोगों को चीखने तक का मौका नहीं मिला। वे मलबे तले दब गए और जान गंवा बैठे। हर तरफ मलबा और लाशें देखने को मिल रही थीं। भूकंप के झटके एक मिनट तक महसूस किए गए। बदहवास हालात में लोग अपनों को तलाशते रहे।

भूकंप के लिए खतरनाक स्थान में से एक तुर्किये रहा। वहीं तुर्किये और सीरिया को भारत की ओर से मिली आपदा राहत एक उल्लेखनीय मदद है। संकट के समय सबको सबका खयाल रखना चाहिए। प्राकृतिक आपदाओं को रोका नहीं जा सकता, लेकिन उसके नुकसान को कम किया जा सकता है। इसका रास्ता मदद और राहत होगा। लेकिन दीर्घकालिक नीतियां बनानी होंगी, जिसमें भूकंप की स्थिति में भी घर सुरक्षित रह सके और जानमाल का व्यापक नुकसान न हो।
सदन जी, पटना, बिहार।