मानसून शीघ्र आने वाला है और संभावना है कि सामान्य से बेहतर रहेगा। सुखद है, लेकिन देश में जो जल संकट है वह अस्थायी रूप से ही टलेगा और भविष्य में इससे गंभीर संकट का सामना करना पड़ सकता है। इस बार सूखे की मार पिछले वर्षों की तुलना में ज्यादा पड़ी है और देश के बहुत सारे राज्य और जिले इसकी चपेट में हैं। ध्यान देने की बात है कि पश्चिमी राज्यों पर सूखे का असर ज्यादा है, जबकि यहां बड़े बांधों की संख्या सबसे ज्यादा है।

जल संरक्षण के वर्तमान तरीके ठीक हैं कि नहीं, यह विचार योग्य है। देश के जो राज्य हमेशा से जल संकट से ग्रस्त रहे हैं, वहां पानी बचाने के परंपरागत तौर-तरीके मौजूद थे। गांधीवादी विचारक अनुपम मिश्र की लिखी किताबों- ‘राजस्थान की रजत बूंदें’ और ‘आज भी खरे हैं तालाब’ में इनके बारे में रोचकता और विस्तार से जानकारी दी हुई है। लेकिन जब से इन इलाकों में ‘विकास’ के नाम पर ‘आधुनिक’ तकनीकें- नहरें, पाइप लाइन आ गर्इं तभी से धीरे-धीरे पुराने तरीकों को भुला दिया गया है। उत्तराखंड के पहाड़ी गांवों-शहरों में जो पुराने नौले-धारे थे उनमें ज्यादातर उपेक्षा के कारण लुप्तप्राय: हैं या गंदगी के कारण उनका पानी पीने योग्य नहीं रहा। लेकिन गर्मियों में नल सूख जाने पर समाज और सरकार को नौलों-धारों की दुर्गति की याद आ जाती है। ‘पर्वतीय जल-स्रोत’ किताब के लेखक प्रफुल्ल पंत व्यंग्यवश इसे ‘श्मशान वैराग्य’ कहते हैं।

पहाड़ में पानी की सुविधा के लिए पिछले सालों में मोटर सड़क के किनारों पर बड़ी-भारी मशीनों से गहराई तक खुदाई करके हैंड-पंप लगाए गए, लेकिन उनमें से अनेक गर्मियों में पानी नहीं देते। कई तो सूख ही चुके हैं। इनके लगने से आसपास के गांव के नौले-धारों में पानी घटा है या सूख गया है। हैंडपंप को जल संरक्षण के उपाय की तरह प्रचारित किया जाता रहा है। इस बारे में जल पुरुष राजेंद्र सिंह से एक बार अल्मोड़ा में चर्चा हुई थी। वे ठीक कहते हैं कि ये पानी के संरक्षण की नहीं, जमा पानी को खर्च करने का उपाय है।

सूखे से सबसे ज्यादा प्रभावित इलाकों को देखें तो स्पष्ट है कि पानी की अत्यधिक खपत संकट का मूल है। सूखे इलाके में परंपरागत कम पानी वाली फसलों की बजाय पैसों के लालच में बहुत ज्यादा पानी की खपत वाली फसलें- गन्ना, धान आदि उगाना और कारखाने-फैक्ट्रियां लगाना जल संकट को न्योता देना नहीं तो और क्या है! उत्तराखंड के तराई क्षेत्र में भी भूजल निरंतर नीचे जा रहा है और इसका समाधान लोग पहले से ज्यादा गहराई में खुदाई करके पानी खींच कर निकाल रहे हैं। लेकिन कब तक और कितना गहरा? कारण यहां भी वही हैं। न केवल जल-स्तर नीचे गिर रहा है, पानी के स्रोत- नहरें, भूमिगत जल, नदियों का पानी प्रदूषित भी हो रहा है।

पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधनों को समग्रता से देखे बिना जल संकट का टिकाऊ हल भी नहीं निकल सकता। आज पानी की कमी को ट्रेन से सैकड़ों मील दूर पानी पहुंचा कर हल कर रहे हैं। ऐसे ही दूषित पेयजल की समस्या से निपटने के लिए नदियों-जलाशयों को साफ रखने के बजाय बोतल बंद पानी के व्यापार को बढ़ावा दिया जा रहा है। गोमुख में जब मैंने सैलानियों को मिनरल वाटर पीते देखा तो हैरानी हुई थी कि जिस गंगा को हम पवित्र ही नहीं, पवित्रता का मानदंड मानते हैं उसी का पानी पी नहीं सकते! (कमल जोशी, अल्मोड़ा, उत्तराखंड)
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तुगलकी निर्णय
अखिलेश यादव कैसे तुगलकी निर्णयों द्वारा सरकारी खजाना लुटाते हैं, हाल का एक फैसला ताजा उदाहरण है। बुंदेलखंड, जहां भूजल-स्तर सात सौ फुट नीचे पहुंच गया है, वहां सपा सरकार ने 5,786 इंडिया मार्क-2 हैंडपंप लगाने के लिए 400 करोड़ जारी किए हैं। ये पंप अधिकतम 150 फुट नीचे से बमुश्किल पानी खींच पाते हैं। स्पष्ट है कि यह सारी कवायद करदाता का पैसा बिना सोचे-विचारे बर्बाद करने के लिए है। यदि अखिलेश वहां वर्षाजल संचय के लिए चेक-डैम बड़ी संख्या में बनाने का प्रयास करते तो कुछ समझ आता। वह तो उन्होंने पिछले चार साल में कहीं भी नहीं किया। इस साल के बजट में भी कोई पैसा इस काम वास्ते नहीं रखा गया। (अजय मित्तल, खंदक, मेरठ)
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सियासी संवेदना
एक हफ्ते से भी कम समय में केरल की दो दलित लड़कियों के साथ बलात्कार की वारदात स्तब्ध करने वाली है। इस पर मीडिया और नेताओं की अपेक्षया चुप्पी भी बड़े सवाल खड़े करती है। कहते हुए दुख होता है कि हमारे देश में दलितों-महिलाओं पर हुए अत्याचारों के खिलाफ तभी उबाल आता है जब किसी सियासी वर्ग का हित उससे जुड़ा हुआ हो। निर्भया के समय शीला दीक्षित की पंद्रह साला सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए आम आदमी पाटी और भाजपा अपने-अपने तरीके से प्रतिबद्ध थीं। वही हाल रोहित वेमुला का भी हुआ। जेएनयू छात्र संघ, मानव संसाधन विकास मंत्रालय और भाजपा की केंद्र सरकार से ठनी लड़ाई में किसी एक को नैतिक बढ़त लेनी थी, लिहाजा रोहित वेमुला मामले का खूब इस्तेमाल किया गया। जबकि उसी विश्वविद्यालय में पहले भी दलितों पर अत्याचार हुए और कोई नहीं बोला था। बेहद तकलीफ से कहना पड़ रहा है कि केरल की बेटियों के साथ हुए अनाचार का समय हमारे किसी सियासी वर्ग की स्वार्थ की भूख के समय से मेल नहीं खाता। इसीलिए उस पर देश नहीं उबलेगा, जंतर-मंतर पर न्याय नहीं मांगा जाएगा। (अंकित दूबे, जेएनयू, दिल्ली)
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मौत का धुआं
नशा किसी भी प्रकार का हो उससे शरीर को भारी नुकसान होता है पर आजकल के युवक शराब और धूम्रपान को फैशन और शौक के लिए उपयोग में ला रहे हैं, यह अत्यंत गंभीर विषय है। इन युवाओं को अपने स्वास्थ्य की चिंता करते हुए यह जानना चाहिए कि धूम्रपान से फेफड़े नष्ट हो जाते हैं और इसके सेवन से कैंसर तक होता है। इसी तरह तंबाखू के सेवन से निमोनिया और सांस की बीमारियों सहित गुर्दे में कैंसर होने की भी आशंका रहती है। शराब के अधिक सेवन से लिवर खराब हो जाता है, जबकि अफीम से व्यक्ति पागल तक हो जाता है। कोकीन, चरस, अफीम आदि ऐसे उत्तेजना लाने वाले पदार्थ हैं जिनके प्रभाव में व्यक्ति अपराध कर बैठता है। यदि हमारे आस-पास कोई व्यक्ति धूम्रपान करता है तो उसका बुरा प्रभाव भी हमारे शरीर पर पड़ता है। इसलिए न खुद धूम्रपान करें और न किसी को करने दें। (शुभम साहू, होशंगाबाद)