आज हमारे देश में औसतन पचास से साठ प्रतिशत ही मतदान होता है। इसमें छोटी-बड़ी पार्टियों और निर्दलीय उम्मीदवारों में मतदान बंटते है। जिस भी उम्मीदवार को कुल मतदान का लगभग दस से बीस प्रतिशत मत प्राप्त हो जाता है, वह जीत हासिल कर लेता है। इसलिए आजकल के उम्मीदवार धनबल-बाहुबल के आधार पर शराब, धन और तमाम प्रकार के प्रलोभन देकर इस आंकड़े को प्राप्त कर लेते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि पूर्णतया भ्रष्ट उम्मीदवार सत्ता की कुर्सी पर काबिज हो जाते हैं, जबकि योग्य उम्मीदवार सत्ता से बाहर। फिर जनप्रतिनिधि बन कर पांच वर्षों तक देश की जनता के करों से ही निर्मित संसाधनों का शोषण करते हैं।

ऐसे लोगों का मुख्य उद्देश्य जनकल्याण नहीं, स्वयं का कल्याण करना होता है। आज हमारे देश में भ्रष्टाचार के कारण कहीं न कहीं शिक्षित मतदाताओं की निष्क्रियता है, क्योंकि अशिक्षित मतदाताओं को तो उम्मीदवार प्रलोभन देकर अपने पक्ष में उनका मत प्राप्त कर लेते हैं, लेकिन शिक्षित मतदाता इस लोकतंत्र के महापर्व में अपनी उपस्थिति सक्रियता के साथ नहीं दर्ज करा पाते हैं। अगर शिक्षित मतदाता सक्रियता से मतदान के पूर्व एक शिक्षित और सुयोग्य उम्मीदवार के बारे में चर्चा कर अपने अगल-बगल के अशिक्षित मतदाता के साथ उन लोगों को भी जागरूक करते, जो वर्तमान राजनीतिक गतिविधियों से इसलिए दूरी बना लिए हैं, क्योंकि वह वर्तमान के राजनेताओं से पूरी तरह निराश व हताश हो गए हैं, तो निश्चित ही वही लोग सत्ता में आते, जो देश और आम जनता के काम में आते।

  • खैरुल बशर, रसड़ा, बलिया

आत्महंता दौर

पिछले तीन वर्षों में बेरोजगारी और कर्ज में डूबे होने की वजह से आत्महत्याओं का आंकड़ा पच्चीस हजार को पार कर गया है। यह समाजशास्त्रियों, मनोविज्ञानियों, देश के नीति निर्धारकों के लिए चिंता का विषय होने के साथ-साथ एक बड़ी चुनौती के रूप में भी देखा जा रहा है। हमारे वर्तमान तंत्र में कहां त्रुटि है कि आदमी इतना बड़ा कदम उठाने को मजबूर हो रहा है। बेरोजगारी और कर्ज की समस्या कोई नई नहीं है, पर इनमें इजाफा जरूर चिंता का विषय बन गया है।

हर चुनाव से पहले सभी राजनीतिक दलों के घोषणा-पत्र युवाओं को लाखों की संख्या में रोजगार देने के सब्जबाग दिखाते हैं और फिर सरकार बनते ही सरकार सचिवालय में और बेरोजगार सड़क पर दिखते हैं। लगभग हर राजनीतिक दल का बेरोजगारी को लेकर एक-सा ही रुख रहता है। भारत को युवाओं का देश कहा जाता है। शायद यही वजह है कि राजनीतिक दलों को यह वर्ग एक वोट बैंक से ज्यादा कुछ नहीं लगता और यह बहुत ही दुखद है कि हमारा सरकारी तंत्र इस युवा शक्ति का सकारात्मक प्रयोग नहीं कर पा रहा है। वह दिनो-दिन विध्वंसक होता जा रहा है, यह और भी दुखद है कि वो अपने पर घात कर रहा है। इसमें कहीं न कहीं नीति निर्धारकों की विफलता दिखती है कि हम आज तक ऐसी नीतियां और योजनाएं ही नहीं बना सके, जो हर हाथ को काम दे सके।

हमारी शिक्षा प्रणाली में काम के प्रति सम्मान की भावना पर बल ही नहीं दिया जाता। आज भी हमारी शिक्षा प्रणाली सिर्फ क्लर्क बनाने का काम कर रही है। विद्यार्थी स्कूल, कालेजों से निकल कर सिर्फ नौकरी की खोज में रहते हैं। पढ़े-लिखे होने के चक्कर में छोटे काम करने में उन्हें शर्म महसूस होती है।
किसानों की कर्ज के कारण होने वाली आत्महत्याएं हमेशा से अखबारों की सुर्खियां रही हैं। अगर इन सभी समस्यों के मूल में जाएंगे तो पाएंगे कि आर्थिक तंगी लोगों के जीवन पर इस कदर हावी होती जा रही है कि वे आत्महत्या जैसे कठोर कदम उठाने को मजबूर हो रहे हैं।

सरकारों की संवेदनहीनता कहीं न कहीं यह आर्थिक तंगी आत्महत्याओं का एक मुख्य कारण बन रही है। सरकार की नीतियां कागजों पर और सुनने में बहुत सुखद अनुभूति करवाती है पर बढ़ती आत्महत्याओं की संख्या तो कुछ और ही बयान करती है। सरकार की सभी कल्याणकारी योजनाओ का मूल्यांकन किया जाना आवश्यक है, ताकि सही मायनों में उनकी सफलता और विफलता का आकलन हो सके और अगर वह देश के लोगों का जीवन नही बचा पा रही है तो उनमें कुछ सुधार किया या उन्हें बदला जाए।

  • राजेंद्र कुमार शर्मा, रेवाड़ी, हरियाणा