संपादकीय ‘अवकाश के दिन’ पढ़ कर अच्छा लगा। छुट््टी या अवकाश का नाम सुन कर कौन खुश नहींं होता, सभी को खुशी मिलती है। सप्ताह के छह दिन काम करने के बाद रविवार का आना, पूरे सप्ताह की काम की थकान से मुक्ति दिलवा देता है। इस प्रकार की छुट््टी के प्रावधान के पीछे एक मनोवैज्ञानिक तर्क भी है कि अगर किसी भी संस्था या विभाग को अपने कर्मचारियों को अधिक उत्पादक बनाना है तो कर्मचारी को या फिर कोई भी व्यवसाय करने वाले को, एक सप्ताह में एक दिन का अवकाश देना, उसके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए अति आवश्यक है। वह संस्था के लिए उपयोगी साबित हो सकता है। एक दिन का अवकाश उसको ऊर्जावान बनाता है।
अगर हम अपने देश की बात करें, तो स्थिति अन्य देशों से कुछ अलग है। यहां रविवार के अलावा सार्वजनिक अवकाशों की एक लंबी सूची है, जो एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश में परिवर्तित होती रहती है। वह प्रदेश की संस्कृति और त्योहारों के अनुसार तय की जाती है। अगर हम एक छोटा-सा अनुमान लगाएं तो एक वर्ष में लगभग बावन तो रविवार ही आ जाते हैं। कुछ विभागों में पांच दिवसीय सप्ताह होता है, तो बावन ही शनिवार हो गए। अब आते हैं त्योहारों, महापुरुषों, महान संतों, महान नेताओं के जन्मदिनों पर आने वाली छुट््िटयों की संख्या पर, तो ये भी हर प्रदेश में 25-30 से कम नहीं बनती। फिर उसके बाद अगर आप सरकारी कर्मचारी हैं तो आपके पास अर्जित अवकाश, कैजुअल अवकाश, हाफ पे अवकाश (चिकित्सीय अवकाश) आदि भी हैं। अगर हम इन सब अवकाशों को जोड़ें, तो पाएंगे कि साल के आधे दिन भी काम नहीं करते, और फिर बात करते हैं कि हम विकसित देशों की श्रेणी में क्यों नहींं आते?
कुछ राजनीतिक दल तो प्रादेशिक अवकाशों के नाम पर ही अपनी राजनीति चमका रहे हैं। कुछ राजनीतिक दल सस्ती लोकप्रियता पाने के लिए अपने चुनावी घोषणा-पत्रों में कुछ नई छुट््िटयों का प्रावधान करने का भी वादा कर देते हैं। इस तरह बढ़ते अवकाशों की संख्या देश की प्रगति में बाधा बनती है। सबसे दयनीय स्थिति तो शिक्षा विभाग की है, जहां शिक्षकों को उपरोक्त वर्णित सामान्य छुट््िटयों के अतिरिक्त ग्रीष्मकालीन अवकाश, शरद कालीन अवकाश, दिवाली अवकाश भी विद्यार्थियों के साथ मिलता है। और फिर अगर शिक्षक अन्य अवकाश भी ले ले, तो विचारणीय हो जाता है कि शिक्षण कार्य कितना होगा?
आकस्मिक अवकाश आकस्मिक आवश्यकताओं के लिए होता है। कर्मचारी अचानक आवश्यकता पड़ने पर इसका प्रयोग कर सकते हैं, जिनकी वर्ष में संख्या आठ या दस रहती है। अगर आपको पूरे वर्ष इनकी आवश्यकता नहींं पड़ी, तो ये अवकाश वर्ष का अंत होने के साथ ही समाप्त हो जाते हैं। ऐसे में देखा गया है कि कर्मचारी दिसंबर माह में आवश्यकता न होने पर भी अपना आकस्मिक अवकाश ले लेते हैं, क्योंकि उनको लगता है कि यह हमारा अधिकार है और हम इन छुट््िटयों का लाभ क्यों न उठाएं? कई बार तो एक साथ कई कर्मचारी आकस्मिक अवकाश लेकर घर बैठ जाते हैं, जिससे पूरी संस्था और विभाग का काम अवरुद्ध हो जाता है। आम आदमी विभागों के चक्कर लगाता रहता है, पर कर्मचारियों के अवकाश पर रहने के कारण कोई काम नहीं हो पाता।
सरकारी महकमों में अवकाशों को एक अधिकार के रूप में स्थापित कर दिया गया है। हमारे धार्मिक त्योहारों पर अवकाश न्यायसंगत है, क्योंकि ये त्योहार हमें हमारी सांस्कृतिक जड़ों से जोड़े रखते हैं, उनको मनाना हमारी संस्कृति का एक अटूट हिस्सा है। राजनीतिक फायदे के लिए घोषित किए जाने वाले अवकाश न्यायसंगत नहींं कहे जा सकते। इसका सबसे अच्छा उदाहरण है सर्वेपल्ली राधाकृष्णन का यह कहना कि मैं नहीं चाहता कि मेरे जन्मदिन पर कोई अवकाश रखा जाए, बल्कि मेरे जन्मदिन को शिक्षकों को समर्पित किया जाए।
देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित नेहरू का जन्मदिन बाल दिवस के रूप में मनाया जाता है। ये उद्धरण हमें दिखाते हैं कि महापुरुषों का वास्तविक सम्मान उनकी शिक्षाओं पर चलना है, उनके बताए मार्ग का अनुसरण करना है, न कि उस दिन छुट््टी करके घर बैठना है। महापुरुषों का आदर-सम्मान अच्छी बात है, पर उनके नाम पर अवकाश के स्थान पर अधिक काम किया जाए, जो देश को उन्नति की ओर अग्रसर कर सके, वही सही मायने में उनका सम्मान और आदर होगा, क्योंकि वे महान हुए अपने कार्यों से, जो वे अपने देश और देश की जनता के लिए करके गए। हमें भी इस सोच से ऊपर उठ कर सोचना होगा कि क्या छुट््टी या अवकाश हमारा अधिकार है या एक आकस्मिक स्थितियों के लिए दी गई एक सुविधा मात्र।
- राजेंद्र कुमार शर्मा, रेवाड़ी, हरियाणा