आज देश भर में आवारा पशुओं की बढ़ती संख्या के कारण उनके आक्रामक हो जाने और हिंसक रूप धारण कर लेने के मामलों में उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही है। इनमें प्रमुख रूप से आवारा कुत्ते के काटने के मामले और बंदर के काटने के मामले आते हैं। इसके अलावा बीच मार्ग पर खुले में घूमते गौवंश के हिंसक होने पर होने वाले दुर्घटनाएं और फिर खड़ी फसल को रातोरात चट करने के मामले भी कृषक वर्ग के साथ-साथ पूरे समाज के लिए चिंता का विषय बना हुआ है।
लालसा के वशीभूत गौवंश का दोहन तब तक किया जाता है, जब तक मानव का स्वार्थ सिद्ध होता रहता है। जब वहीं पालतू पशु दूध देना बंद कर दे तो फिर उन्हें सड़कों पर आवारा छोड़ दिया जाता है। हालांकि देश में गौशाला बड़े नगरों में स्थापित की गई हैं, लेकिन जो हैं भी, उनमें पशुओं को ठूंस-ठूंस कर रखा जाता है। इन गौशालाओं में भी अधिकतर गायों को ही प्राथमिकता दी जाती है, जिस वजह से बैल या सांड़ रिहाइश से वंचित रह जाता है और सड़कों पर भटकने को मजबूर होता है। ये जानवर बीच सड़क को अवरुद्ध किए रहते हैं और कहीं हिंसक रूप धारण कर मनुष्यों की जानमाल के लिए खतरा बने रहते हैं।
इसी तरह आवारा कुत्तों द्वारा भी आए दिन काटने के मामले में वृद्धि हो रही है। इन आवारा कुत्तों की भूख शांत नहीं हो पाती है तब ये आक्रामक हो जाते हैं और फिर राहगीरों पर हमले करना आरंभ कर देते हैं। कई जगहों से नवजात शिशु या किसी अन्य बच्चे या बुजुर्ग को नोच-नोच कर मार डालने की दिल दहला देने वाली घटना सामने आ चुकी है। एक रिपोर्ट के अनुसार, अगर किसी वाहन की चपेट में आकर कोई पिल्ला मर जाता है तो वहां आसपास के कुत्ते प्रत्येक वाहन का पीछे करते देखे जाते हैं।
इसी तरह भारत में बंदर द्वारा काटने की भी एक गंभीर समस्या बनी हुई है। शहरीकरण के दौर में जहां वनों का कटाव तेजी से हो रहा है, वहां बंदरों का भी शहरों की और पलायन हो रहा है। मानव के स्वार्थ ने इन सबके रहने की जगह का संकुचन कर अपने ही समाज के लिए समस्या उत्पन्न कर ली है। आवारा पशुओं की बढ़ती संख्या और उनके आक्रामक व्यवहार के प्रति तेजी से कदम उठाने होंगे। वहीं मनुष्य से भी अपेक्षा की जाती है कि अपने स्वार्थ को तज कर प्रशासन के साथ सहयोग करते हुए पालतू जानवर को आवारा बनाने के अपने रवैये में परिवर्तन लाएं।
मुनीष भाटिया, कुरुक्षेत्र, हरियाणा।
दिखावा बनाम सरोकार
‘संकीर्ण सोच’ (संपादकीय, 7 जुलाई) पढ़ा। मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने एक आदिवासी युवक पर पेशाब करने की घटना के बाद पीड़ित के पैर धोए, आरती उतारी और साथ में भोजन भी किया। मध्य प्रदेश में आदिवासियों की कुल जनसंख्या दो करोड़ से भी अधिक है। राज्य में कुल 230 विधानसभा क्षेत्र है, जिनमें से 47 सीटें आदिवासी समाज के लोगों के लिए आरक्षित हैं।
वर्तमान में इन 47 सीटों में से 30 सीटें कांग्रेस के पास हैं जबकि 17 सीटें भाजपा के पास। मध्य प्रदेश में विधानसभा चुनाव बहुत जल्द होने वाले हैं। स्पष्ट है कि इस घटना के बाद आदिवासी बाहुल्य क्षेत्रों से अपनी खिसकती हुई जमीन को बचाने में यह घटना काफी असर डालेगी।
राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट के मुताबिक, आदिवासियों पर अपराध के मामले में मध्य प्रदेश सबसे आगे है। अब भी वक्त है। भाजपा को आदिवासियों के लिए बनाए गए कल्याणकारी योजनाओं को अमली जामा पहनाना होगा। उनके अधिकारों के संरक्षण के लिए समुचित प्रबंध करने होंगे। कई जगह तो उन्हें अपने जंगल में अपनी ही जमीन से बलपूर्वक खदेड़ कर हटा दिया जाता है, ताकि निर्माण कार्य हो सके।
ऐसे में उनके पुनर्वास के समुचित प्रबंध की भी जिम्मेदारी संबंधित सरकारी विभागों को करनी होगी। आदिवासियों के खिलाफ हुए अपराधों की त्वरित अदालतों में सुनवाई करनी होगी, ताकि आदिवासियों को यह महसूस हो कि इस देश में उनका शोषण नहीं हो रहा है। यह देश उनका भी है।
रूपेश गुप्ता, इंदिरापुरम, गाजियाबाद।
लापरवाही के रास्ते
मानसून आते ही सड़कों पर जानलेवा गड्ढे दिखाई देने लगते हैं जो आम जनता की परेशानी का सबब बनते जा रहे हैं। कौन जाने, कब कौन-सा गड्ढा किसकी जान पर भारी पड़ जाए। देश के ग्रामीण इलाकों का हाल तो और भी बदतर है। सरकार भले ही कितने दावे कर ले, लेकिन सच्चाई सबके सामने हैं। बारिश के बाद सड़कों पर कचरा जमा होने के साथ जलभराव हो जाता है, सड़कें उखड़ जाती हैं। पानी भर जाने के कारण ये वाहन चालकों के लिए जानलेवा साबित हो रहे हैं। ऐसे में यह समस्या सड़क सुरक्षा पर भी आंच डालती है। जब तक हमारे रास्ते टूटे रहेंगे, हम खुद को विकसित नहीं कह सकते।
रेंगता यातायात, गड्ढे और जलभराव आम जनता की जान पर आफत है। ऐसे में स्थानीय प्रशासन की कार्यप्रणाली पर भी सवाल खड़े होते हैं। सड़कों की गुणवत्ता कितनी सही है, इसका अंदाजा तेज बारिश के बाद उसकी हालत एक बार देखकर ही लगाया जा सकता है। होना तो यह चाहिए कि सड़क निर्माण के दौरान ही कड़ी नजर से काम पूरा करवाया जाए। बारिश के बाद जर्जर सड़कों को तेज गति से ठीक कर गुणवत्ता सुनिश्चित की जाए। साथ ही स्थानीय अधिकारियों की जवाबदेही भी तय की जानी चाहिए।
पूजा सैनी, कैलाश कालोनी, दिल्ली।
लोकतंत्र की चुनौती
पिछले दिनों हुए बंगाल चुनाव खून से लथपथ दिखे। लोकतांत्रिक व्यवस्था की चाहे कितनी दुहाई दी जाए, सत्ता का संघर्ष यह दर्शाता है कि हम एक तरह की तानाशाही की ओर बढ़ रहे हैं। लोकतांत्रिक मर्यादा को छोड़ ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ कहावत को चरित्रार्थ कर रहे हैं। खून से सनी सियासत लोकतंत्र के भविष्य के लिए अच्छे संकेत नहीं हैं।
संविधान के दायरे-कायदे विस्मृत कर साम-दाम-दंड भेद को ही सत्ता हथियाने का मूलमंत्र बना बैठे हैं। राजनीति जनसेवा की जगह पेशा बन गई। लोकतांत्रिक ह्रास को रोकने के लिए देश में विचार मंथन की आवश्यकता है। संदेहमुक्त और निष्पक्ष चुनाव के लिए चुनाव आयोग को और स्वतंत्र सशक्त बनाना जरूरी है।
हुकुम सिंह पंवार, इंदौर, मप्र।