आम नागरिकों के हित की आवाज बुलंद करने पर ही राजनीतिक बुलंदियों को छुआ जा सकता है। इसमें यह आवश्यक नहीं कि आवाज उठाने का कोई सार्थक परिणाम आए ही आए। बस, आसपास ही नहीं, बल्कि दूरदराज तक यह संदेश जाना चाहिए कि आप जनता के हित की लड़ाई लड़ रहे हैं। राजनीति की प्रचलित परंपरा में हमारे नाम के आगे जब तक ‘संघर्षशील’ या ‘जुझारू’ का तमगा नहीं लग जाता, तब तक कोई हमें गंभीरता से लेगा- इसकी कोई गारंटी नहीं दे सकता। दरअसल, राजनीति में जो दिखता है, वही बिकता है। जो बहुचर्चित हो जाता है, उसी का बाजार गर्म रहता है। राजनीति में समय, श्रम और धन के निवेश में व्यापार बुद्धि आवश्यक होती है।
सवाल यह नहीं होता कि कोई राजनीतिक शख्सियत विख्यात है या कुख्यात, बस वह चर्चा में बनी रहनी चाहिए। जो चतुर राजनीतिक होते हैं, वे थोड़े बहुत अंतराल से उल-जुलूल बयानबाजी कर मीडिया की सुर्खियां बटोर ले जाते हैं। इससे सीधा फायदा यह होता है कि बिना किसी अतिरिक्त लागत के चर्चा में बने रहना आसान हो जाता है। कभी-कभी विवाद पैदा करने वाले बयान देकर भी सुर्खियां बटोरी जाती हैं। यही नहीं, इसके बाद स्पष्टीकरण के नाम पर फिर आम नागरिकों के सामने अपनी सक्रियता का प्रमाण भी दिया जाता है। यों भी आजकल की राजनीति में किसी सीधे-सादे के लिए कोई स्थान नहीं है। लेकिन जो कोई ‘भोले-भाले’ हुआ करते हैं, उनकी धार दुधारी होकर चमत्कारिक फल देती है!
आजकल की राजनीति में स्थापित होने के लिए अनेक रास्ते निकल आए हैं। बीते दौर में तो केवल राज परिवारों को ही यह सुविधा थी कि इधर राजनीति में कूदे और उधर स्थापित हो गए। लेकिन हर किसी को यह सुविधा नहीं होती। आज कुछ नहीं तो चंद धरने, प्रदर्शन और घेराव राजनीतिक जड़ जमाने के लिए आवश्यक होते हैं। इसके अतिरिक्त राजनीति में विभिन्न समीकरण साधने में भी महारत होना आवश्यक है। जाति, क्षेत्र, वर्ग और संप्रदाय के आधार पर हर कोई अपनी-अपनी संभावनाओं का आकलन करता ही करता है। आमतौर पर ऐसा आकलन अपेक्षित परिणाम देने में सहायक सिद्ध होता है।
आजकल की राजनीति में बिना उचित-अनुचित का ध्यान रखे, चाहे जैसी हो, आवाज बुलंद करने का चलन चल पड़ा है। दरअसल, नेतागिरी का चस्का ऐसा ही होता है कि जहां भीड़ दिखाई देती है, उसका नेतृत्व करने की इच्छा बलवती होती जाती है। यों भी, हमारे यहां लोकतंत्र में आंशिक रूप से ही सही लेकिन ‘भीड़तंत्र’ नजर आता है। मुद्दे की बात यह कि अगर हम राष्ट्रीय एकता, अखंडता और संप्रभुता के हित में आवाज बुलंद करते हैं, तो हमारा स्तर ‘राष्ट्रीय स्तर’ का हो जाता है। अगर हम स्थानीय स्तर की समस्याओं की बात करते हैं, तो हमारा स्तर एक स्थानीय नेता के रूप में स्थापित हो जाता है। यानी राजनीति में सोच के आधार पर स्तर निर्धारित होता है।
’राजेंद्र बज, देवास, मप्र
