‘कुदरत की सांसें’ (दुनिया मेरे आगे, 10 जनवरी) को पढ़ कर कवि नीरज गोस्वामी की ये पंक्तियां याद आर्इं- ‘किसी सजर के सगे नहीं हैं ये चहचहाते हुए परिंदे, तभी तलक करें ये बसेरा दरख्त जब तक हरा भरा हो’। भारत के पर्यावरण मंत्रालय ने वर्ष 2019 में एक रिपोर्ट जारी करते हुए कहा था कि 2016 से 2019 तक देशभर में उनहत्तर लाख से भी अधिक पेड़ कटे। इस आंकड़े से यह अंदाजा बखूबी लगाया जा सकता है कि हम जंगलों को किस कदर तबाह कर रहे हैं।
भारत दुनिया का ऐसा देश है जहां पर्यावरण को बचाने के लिए अनेक आंदोलन हुए हैं। इन आंदोलनों ने देश के जंगलों और नदियों को बचाए रखने के प्रयासों में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। विश्नोई पंथ के आंदोलन ने राजस्थान के जंगल को बचाने का जो अभियान चलाया था, उसका प्रभाव आज भी वहां अनुभव किया जा सकता है। गुरु जम्भेश्वर के नेतृत्व में उस आंदोलन ने जंगल को बचाने और सहेजने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। आगे चलकर अमृता देवी ने इसे आगे बढ़ाया।
इन प्रयासों में उत्तर-भारत का ‘चिपको आंदोलन’, दक्षिण-भारत में कर्नाटक का ‘अप्पिको आंदोलन’, केरल की शांतिघाटी को बचाने के लिए साइलेंटघाटी आंदोलन, टिहरी बांध विरोधी आंदोलन तथा बिहार एवं मध्यप्रदेश के जंगल बचाओ और नर्मदा बचाओ आंदोलन भी शामिल हैं। हमारे लोकगीतों, लोककला और साहित्य में भी विविध रूप में प्रकृति को बचाने का संदेश दिया गया है।
सन 1992 से प्रतिवर्ष 05 जून को पर्यावरण दिवस मनाया जाता है। 2019 में पर्यावरण दिवस का मुख्य केंद्र वायु प्रदूषण के नियंत्रण पर आधारित था। उसके लक्ष्य को हमने कितनी गंभीरता से लिया है, इसका अंदाजा दिल्ली और अन्य महानगरों की हवा की गुणवत्ता से जाहिर हो रहा है। अनेक राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय कानून होने के बाद भी समूची दुनिया जलवायु परिवर्तन, जल संकट, प्रदूषण और जंगलों की आग से जूझ रही है। प्रतिवर्ष धरती के तापमान में भी लगातार वृद्धि हो रही है।
जंगलों को बचाने और सहेजने में हमारे देश में इस दिशा में राजनीतिक चेतना की जरूरत है। जंगलों को जिस तरह से काटा जा रहा है, इस स्थिति में शायर असद बदायुंनी का यह शेर याद आ रहा है- ‘हवा दरख्तों से कहती है दुख के लहजे में, अभी मुझे कई सहराओं से गुजरना है’!
- अनुशांत सिंह, ग्वालियर, मप्र
शिक्षा बनी व्यापार
‘अनियमता के परिसर’ (संपादकीय, 10 जनवरी) शिक्षा संस्थाओं को व्यापारिक केंद्र के तौर पर दुरुपयोग करने पर अच्छी विवेचना करता है। इसमें हरियाणा के अशोका विश्वविद्यालय का उदाहरण दिया गया है। असल में जब से सरकार की नीति शिक्षा संस्थाओं के निजीकरण की बनी, तब से बड़े-बड़े अमीर लोग अपने साधनों से या बैंकों से ऋण लेकर इन्हें लाभप्रद उद्योगों की तरह प्रयोग करते हुए देखे जा सकते हैं। उच्च शिक्षा संस्थानों में तो और भी बुरा हाल है। वहां रोजगार प्राप्त करने वाले विद्यार्थी बड़ी मुश्किल से वित्तीय व्यवस्था करके दाखिला लेते हैं, लेकिन वहां भी न तो सुविधाएं होती हैं और न ही अनुभवी शिक्षक होते हैं।
इन संस्थाओं को चलाने वाले तो केवल विद्यार्थियों से भारी-भरकम फीस लेने में ही दिलचस्पी रखते हैं। कोई नौकरी नहीं होती। इन संस्थानों के मालिक प्राप्त धन को अन्यत्र निवेश करके ज्यादा लाभ कमाते हैं। मेरा मानना है कि ऐसे संस्थानों को आयकर के दायरे में लाना चाहिए। इनकी फीस ऐसी होनी चाहिए कि साधारण विद्यार्थी भी संस्थान में दाखिला ले सकें। अनावश्यक वसूलियों पर प्रतिबंध लगाना चाहिए। गहराई से इनके धन और कोष की जांच होनी चाहिए। इस बात को सुनिश्चित करना चाहिए कि आवश्यक सुविधाएं तथा अनुभवी स्टाफ उपलब्ध हों।
- शामलाल कौशल, रोहतक, हरियाणा