‘चिकित्सा शिक्षा में प्रवेश की मुश्किलें’ (27 मई) पढ़ा। मेडिकल की पढ़ाई के लिए नीट परीक्षा में शामिल होने वाले विद्यार्थियों की संख्या इस वर्ष इक्कीस लाख से अधिक थी। जबकि देश में शासकीय और निजी कालेज को मिलाकर एक लाख के लगभग सीटें उपलब्ध हैं। एक विद्यार्थी को नीट की परीक्षा पास करने से लेकर डाक्टर बनने तक में जिंदगी का अधिकतम महत्त्वपूर्ण भाग खर्च करना पड़ता है।
मगर सीटों की कम उपलब्धता के कारण मात्र पांच प्रतिशत विद्यार्थियों को ही मेडिकल की पढ़ाई का अवसर मिल पाता है! इनमें से भी निजी कालेज में सिर्फ धनाढ्य वर्ग ही प्रवेश कर पता है। फिर शुरू होती है विदेश जाने की कवायद जो कि भारत से कम खर्चे में पढ़ाई करवा कर डिग्री दे देते हैं, मगर उनमें से कई विद्यार्थी भारतीय अस्पतालों में नियुक्ति के योग्य नहीं रह जाते।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार विश्व में प्रत्येक 1,000 व्यक्ति के पीछे कम से कम एक डाक्टर उपलब्ध होना चाहिए। भारत में 7,000 लोगों पर एक डाक्टर है! उनमें से भी अधिकांश प्रतिभाशाली डाक्टर निजी अस्पतालों में नौकरी कर रहे हैं, जहां इलाज कराना आम आदमी के बस की बात नहीं है।
पिछले एक दशक से देश के हर क्षेत्र में आत्मनिर्भरता के लिए सतत प्रयास जारी है। ऐसे में मेडिकल कालेज की भारी कमी को तत्काल पूरा करने के लिए सरकार को अधिक धन का प्रावधान करना चाहिए! आधिकारिक मेडिकल कालेज खोलने चाहिए! इससे जहां देश में अधिक डाक्टर उपलब्ध होंगे, बल्कि उन्हें रोजगार मिलेगा और देश की जनता को उचित स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध हो सकेगी!
विभूति बुपक्या, खाचरोद, मप्र।
गरिमा के लिए
हाल ही में नए संसद भवन के उद्घाटन में विपक्ष सहित अन्य दलों का कार्यक्रम में शामिल न होना कहीं न कहीं बचकानी मानसिकता को जाहिर करता है। देश के ऐतिहासिक राष्ट्रीय कार्यक्रम में इस तरह की उदासीनता से अन्य देशों मे क्या संदेश जाएगा, इस बात पर भी चिंतन मनन जरूरी है। राजनीति और सियासत करने का समय नहीं है।
यह समय देश का गौरव और सभी विपक्षी दलों सहित सभी दलों के एकजुट होने का है, ताकि दुनिया के अन्य देशों व पड़ोसी देशों को भारत की एकता अखंडता की शक्ति का भान हो सके। साथ ही शक्तिशाली, आत्मनिर्भर वर्तमान दौर के मजबूत भारत का दमखम मालूम हो सके। मतभेदों को दूर करने के लिए या अपनी बात को रखने के लिए उद्घाटन के बाद भी समय है, वह भी गरिमामयी तरीके से! होना यह चाहिए था कि सभी दल एकजुट होकर देश के विकास को अग्रसर करने के लिए भारत की एकता को जीवंत रखने की पहल करते।
योगेश जोशी, बड़वाह।
विरोध का तरीका
‘नाहक दूरी’ (संपादकीय, 29 मई) में उल्लेख है कि केंद्र द्वारा आहूत की गई बैठक में विपक्ष ने उपस्थित न होकर दूरी बनाकर विरोध किया। हाल ही में नीति आयोग की बैठक में भी आठ से अधिक मुख्यमंत्रियों ने अनुपस्थिति दर्ज की, जबकि मुख्यमंत्री भी जनता द्वारा निर्वाचित होता है और उससे जनता की उनसे अपेक्षाएं होती हैं।
क्या अनुपस्थिति से अपेक्षाएं पूरी की जा सकती है? माना कि केंद्र सरकार विपक्ष की सलाह नहीं मानती, लेकिन मीटिंग में उपस्थित होकर ही विपक्ष को अपना विरोध रिकार्ड में दर्ज करवाना चाहिए। दस्तावेजों में दर्ज विरोध का विशेष महत्त्व होने से हो रहे एकपक्षीय निर्णय भी क्रमश: नियंत्रित होंगे।
बीएल शर्मा ‘अकिंचन’, तराना, उज्जैन।
पानी का प्रबंध
जल संकट से आज जिस तरह के हालात बन रहे हैं, उससे आने वाले समय में पानी की मारामारी मचनी तय है। बड़ी आबादी के बोझ और पानी के बढ़ते दुरुपयोग के बीच यह खबर संकट पैदा करने वाली ही है कि मौसम में बदलाव के साथ-साथ तापमान में बढ़ोतरी से दुनिया की आधी बड़ी झीलों में पानी की कमी होती जा रही है। खबर ने अदृश्य संकट की तरफ इशारा किया है जिसे समझा जाना जरूरी है।
आज पूरी दुनिया बढ़ते तापमान की शिकार है। इसी वजह से अप्रत्याशित गर्मी का सामना कर रही है। वैज्ञानिक इस तथ्य को जाहिर कर चुके हैं कि आने वाले पांच सालों में गर्मी का पारा सहनशीलता के बाहर चला जाएगा। यह सोचने वाली ही बात होगी कि जब मनुष्य इसे सहन नहीं कर पाएगा तो पानी इसके आगे कितना टिकेगा?
ऐसे में जल स्रोतों की हालत क्या होगी? इस बात पर भी गौर करना जरूरी है कि नदियों से ज्यादा झीलों के पानी का दैनिक जीवन में उपयोग अधिक होता है, तब पानी और मानव जीवन कितना संघर्षपूर्ण होगा? इससे पहले कि हालात और गंभीर हो, जल पुनर्भरण और उसके संग्रहण पर जमीनी प्रयास जरूरी है।
अमृतलाल मारू ‘रवि’, इंदौर, मप्र।
चीता का जीवन
मध्य प्रदेश के कूनो नेशनल पार्क में मादा चीता ज्वाला के एक-एक कर तीन शावकों की मौत ने जहां वन्यजीव प्रेमियों को मायूस किया है, वहीं बाकी जिंदा चीतों को लेकर चिंता बनेगी। नामीबिया से बीस चीते लाए गए थे और यहां आने के बाद 27 मार्च को ज्वाला ने चार शावकों को जन्म दिया था। लेकिन पिछले छह महीने में पहले तीन चीतों की मौत हुई और फिर तीन शावक भी जीवित नहीं रह सके।
हालांकि विशेषज्ञों के मुताबिक ऐसी परियोजनाओं का मूल्यांकन करते हुए जल्दबाजी में निष्कर्ष निकालने से बचा जाना चाहिए। इसने इस प्रोजेक्ट को सवाल के घेरे खड़ा कर दिया है। मध्य प्रदेश वन विभाग के अधिकारियों ने चीतों की मौतों का कारण गर्मी, कुपोषण और उपचार के प्रयासों पर इनकी कोई प्रतिक्रिया न आना बताया है। क्या इन चीतों और शावकों के लिए यहां का मौसम और परिवेश अपेक्षा से कहीं ज्यादा प्रतिकूल साबित हो रहा है? शावकों के लिए सबसे पौष्टिक आहार मां का दूध होता है।
करीब दो महीने की उम्र के ये शावक अगर कमजोर थे तो क्या उन्हें मां का पर्याप्त दूध नहीं मिल रहा था और अगर यह सच है तो क्या मां में पर्याप्त दूध बन ही नहीं रहा था? दीर्घकालिक नजरिया अपनाते हुए इस प्रयोग को सही ढंग से आगे बढ़ाया जाए तो इसकी कामयाबी ही नहीं, नाकामी से जुड़े पहलुओं के भी ऐसे महत्त्वपूर्ण सबक हो सकते हैं जो आगे दुनिया भर के जीव विज्ञानियों का मार्गदर्शन करे।
मधु कुमारी, बोकारो, झारखंड।