बैंकों की दो दिन की राष्ट्रव्यापी हड़ताल से जनता की स्थिति बेहाल रही। हड़ताल के चलते बैंकों के सारे काम ठप पड़े रहे, एटीएम सुविधा बाधित रही। ऐसे में भारत के आधुनिकीकरण को कोसा गया। इसका एक कारण है निजीकरण। यानी जो बैंक लंबे समय से आर्थिक नुकसान उठा रहे हैं, उनका या तो बड़े बैंकों में विलय करना या निजीकरण करना। इसी बात से आहत होकर बैंककर्मियों ने हड़ताल का ऐलान कर दिया। बैंक बंद होने से बाजार की स्थिति भी कमजोर हो जाती है, जिससे देश को आर्थिक नुकसान और महंगाई का सामना करना पड़ता है।
अगर सरकार बंद पड़े बैंकों को सशक्त बनाना चाहती है, तो इसमें आपत्ति क्या है। सामान्यत: इतना तो विचार करना चाहिए कि सरकार हमें सम्मानजनक जीवन यापन करने का मौका दे रही है, तो इसका दुरुपयोग न करें। केवल हड़तालें सरकार तक बात पहुंचाने का उपाय नहीं हो सकतीं। लोकतंत्र में नागरिक को अपनी बात सरकार तक पहुंचाने का अधिकार है, लेकिन इसकी भी एक सीमा होती है। हड़तालें देश की आत्मनिर्भरता के बढ़ते कदमों में बाधा डालने का काम कर रही है। बैंककर्मियों का यह रुख देशहित में नहीं है।
शुभम दुबे, इंदौर</p>
हिंसा की सियासत
पश्चिम बंगाल विधानसभा में सत्ता पक्ष और विपक्ष के विधायकों के बीच हाथापाई हुई,थप्पड़-घूंसे चले। यह घटना लोकतंत्र के माथे पर कलंक हैं। पर ऐसा नजारा पेश करने वाला पश्चिम बंगाल अकेला प्रदेश नहीं है। ऐसे कई भीषण नजारे उत्तर प्रदेश, तमिलनाडु, आदि में देखने को मिल चुके हैं। क्या इस दिन के लिए भारत गणतंत्र बना था? कई बार सदन की गरिमा खंडित हुई। सदस्यों ने मयार्दाएं तार-तार कर दीं और लोकतंत्र, संविधान का मंदिर अपमानित किया गया। बंगाल में यह नौबत आपसी असहिष्णुता के कारण आई। ममता सरकार बीरभूम की दिल दहलाने वाली घटना पर चर्चा करने के लिए तैयार नहीं थी। इस हिंसा के लिए केवल भाजपा विधायकों को जिम्मेदार माना गया और उनमें से पांच को साल भर के लिए निलंबित भी कर दिया गया। यह मनमानी के अलावा और कुछ नहीं!
पश्चिम बंगाल में विधानमंडल के भीतर और बाहर जैसी राजनीतिक हिंसा की विरासत कायम कर दी गई है, उससे बंगाल की सभ्यता और संस्कृति ही ‘दागदार’ हो रही हैं। दुर्भाग्यपूर्ण यह भी है कि जब बंगाल में हिंसा और हत्याओं की घटनाएं सामने आती हैं, तो उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, गुजरात आदि राज्यों के पुराने अध्याय खुलने लगते हैं। बेहद हास्यास्पद और घृणात्मक है ऐसी सियासत। बेहतर होगा कि जिम्मेदार राजनीतिक पार्टियां अपने-अपने घरों की सफाई सबसे पहले करें।
विभुति बुपक्या, आष्टा, मप्र
रूस की दादागीरी
कई देश, उक्रेन पर रूसी आक्रमण के तनाव के बीच, तुर्की द्वारा किया जा रहा मध्यस्तता का स्वागत कर रहे हैं। मगर जिस प्रकार समझौते के मसौदे बाहर आ रहे हैं, वे पूरी तरह मास्को के पक्ष में और आजादी के उसूलों के खिलाफ दिख रहे हैं। रूस, क्रीमिया समेत अभी नियंत्रित क्षेत्रों जैसे मारिउपोल आदि में अपना वर्चस्व कायम करना चाहता है। वह चाहता है की उक्रेन न सिर्फ तटस्थ रहे, बल्कि भविष्य में यूरोपीय संघ में शामिल न हो।
उक्रेन जिन चार देशों को अपनी सुरक्षा के लिए गारंटर के रूप में मांग रहा है, उससे भी कुछ नहीं होगा, क्योंकि बुदापेस्ट समझौते में जब उक्रेन ने परमाणु हथियार का त्याग किया था तब भी उसे सुरक्षा की गारंटी दी गई थी। मगर उस समझौते का क्या हश्र हुआ, इसे सभी आज देख रहे हैं। अगर रूसी दादागीरी को उक्रेन आज कबूल कर लेता है, तो कल को यही हश्र सोवियत संघ से अलग हुए छह राष्ट्रों, आर्मेनिया, अजरबैजान, एस्टोनिया, जार्जिया, कजाकिस्तान, किर्गिस्तान का भी होने वाला है।
जंग बहादुर सिंह, जमशेदपुर