पिछले दिनों मां वैष्णो देवी के मंदिर परिसर में जो हुआ, वह बहुत ही दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण हादसा है। मंदिर परिसर में हुई भगदड़ में कई लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा और कई लोग इस हादसे में घायल हो गए। कारण अभी स्पष्ट नहीं है। कुछ इसका कारण पत्थर गिरने की अफवाह से जोड़ रहे हैं, तो कुछ इसका कारण दो यात्रियों की आपस में कहा-सुनी मान रहे हैं। बरहाल, कारण कुछ भी हो, पर इस सबका परिणाम दुखद हुआ।
वर्ष के प्रथम दिवस पर इतनी संख्या में श्रद्धालुओं का मां वैष्णो देवी स्थल पर पहुंचना क्या दर्शाता है? वहां जरूर प्रशासन से कुछ चूक हुई, पर उससे बड़ी चूक हम लोगों से हुई। 2013 में उत्तराखंड के केदारनाथ में आए सैलाब और फिर 2015 में नेपाल में आए भीषण भूकंप में भारी जन-धन का नुकसान हुआ, पर इन सब त्रासदियों से भी हमने कुछ नहीं सीखा। सवाल यह नहीं है कि किसी हादसे का कारण क्या था? अपने इष्ट में आस्था रखना भी बुरी बात नहीं है, पर एक तरफ जब ओमीक्रान अपने पैर पसार रहा है, तो क्या हमें यह सोचने की आवश्यकता नहीं कि किसी एक ही दिन में इतने श्रद्धालुओं का एक ही जगह पहुंचना आवश्यक था? प्रशासन को सुनिश्चित करने की आवश्यकता थी कि क्षमता से अधिक लोग एक साथ न आएं।
यह भी देखा गया है कि धार्मिक स्थलों और उनके आसपास की खाली जगहों पर व्यावसायिक गतिविधियों का अतिक्रमण एक आम बात है। मंदिरों तक पहुंचने के मार्ग इतने संकरे कर दिए गए हैं कि चार लोगों का चलना भी दूभर हो जाता है। इसलिए सरकार और स्थानीय प्रशासन को इसके लिए व्यवस्था बनाना अति आवश्यक है। बड़े धार्मिक स्थलों के पांच सौ मीटर और छोटे धार्मिक स्थलों के दो सौ मीटर के दायरे के बाहर ही व्यावसायिक गतिविधियों की इजाजत दी जानी चाहिए। धार्मिक स्थलों तक जाने के मार्ग पूरी तरह खुले हों, जिनमें एक तरफ आने और दूसरी तरफ से जाने की व्यवस्था की जानी चाहिए।
वर्तमान सरकार धार्मिक स्थलों के लिए बहुत कार्य कर रही है। अगर देश के सभी प्रमुख धार्मिक स्थलों का सुरक्षा मानकों के मद्देनजर एक आडिट हो जाए, तो सरकार और प्रशासन को यह जानने में मदद मिलेगी कि किस धार्मिक स्थल की सुरक्षा और अनुशासन की दृष्टि से क्या आवश्यकताएं है और उसका प्रभावी प्रबंधन कैसे किया जा सकता है? हम लोगों को भी जिम्मेवार बनने की आवश्यकता है। जो लोग सिर्फ सैर-सपाटे के लिए धार्मिक स्थलों पर जाते हैं, वे इस पर चिंतन करें। आध्यात्मिक उन्नति के लिए धार्मिक स्थलों पर जाने वाले लोगों की संख्या इतनी नहीं होती, और जो अध्यात्म की तरफ मुड़ गया उसके लिए स्थान नहीं, मन ही मंदिर का स्थान ले लेता है। वह स्वानुशासित हो जाता है। वह अपने अंतर्मन में अपने इष्ट के साक्षात दर्शन करता है, कभी भी, कहीं भी।
’राजेंद्र कुमार शर्मा, रेवाड़ी (हरियाणा)