सामाजिक शांति और सद्भाव के सेतु निर्माण में जब दीर्घकाल व्यतीत होने के पूर्ववर्ती उदाहरण हैं तो सवाल है कि इसके तानबाने को छिन-भिन्न करने की मनोदशा आखिर कहां से और क्यों उपजती है। पूर्वोत्तर के मणिपुर की धरती में शांत और शीतलता के बादल थे कि अचानक आरक्षण की अग्नि ने प्रांत के अधिकांश क्षेत्रों को अपने आगोश में ले लिया।
नतीजतन, पचास से अधिक लोगों को मौत की दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति बनी। मणिपुर उच्च न्यायालय ने मैतेई समुदाय द्वारा दायर याचिका पर राज्य सरकार की सहमति से जब वहां के तिरपन फीसद आबादी का प्रतिनिधित्व करने वाली बहुसंख्यक इस बिरादरी को अनुसूचित जनजाति की सूची में शामिल करने का निर्देश भारत सरकार को भेजने को दिया तो स्वाभाविक रूप से पहले से अधिसूचित जनजातियों के कुकी और अन्य वर्गों को इस प्रस्ताव से आक्रोश हुआ।
प्रदेश के पहाड़ी जिलों में चालीस फीसद लोग आवासित हैं, जबकि राज्य की नौकरियों और शिक्षा में अनुसूचित जनजाति को इकतीस फीसद आरक्षण है, जिन्हें यह शंका हुई होगी कि वर्तमान न्यायिक निर्देश से उनके हक प्रभावित होंगे। इस शंका को कुछ स्वार्थी तत्त्वों द्वारा हवा देने के कारण शांति भंग हुई, जातीय उन्माद बढ़ा और मणिपुर में अराजक स्थिति निर्मित हो गई।
वहां की कुकी जनजाति अधिक विरोध में है और विभिन्न छात्र संगठनों ने भी न्यायिक निर्देश के विरुद्ध बिगुल फूंक दिया है। आरक्षण का विषय राजनीतिक दलों के लिए संजीवनी समान है, जिसके खेल कई दशकों से जारी हैं। मणिपुर की घटना में अस्वस्थ राजनीतिक मंशा भी उत्तरदायी है।
उच्च न्यायालय ने जो भी निर्देश दिया था, राज्य सरकार को गंभीरता से दोनों पक्ष के साथ गुण-दोष के आधार पर विमर्श करके सहमति के प्रयास करने चाहिए थे। सौहार्द का वातावरण खराब नहीं हो, इसके आकलन में राज्य प्रशासन की चूक हुई है। उचित होता कि राज्य सरकार अपनी सहमति जब उच्च न्यायालय को समर्पित कर रही थी तो उसे विधि व्यवस्था के हर बिंदु पर गौर करना चाहिए था।
राज्य सरकार के अपने गुप्तचर तंत्र हैं, जिनका दायित्व है कि राज्य में घटने वाली घटना पर वह निरंतर अपनी दृष्टि रखे। अब देर से सही, प्रशासन ने स्थिति को नियंत्रित कर लिया, लेकिन थोड़ी सूझबूझ अगर पहले अपनाई जाती तो जानमाल की क्षति को रोका जा सकता था। जिन वर्गों में असंतोष और आक्रोश पनपा है, जरूरत है कि सरकार उसे विश्वास में लेकर आगे की कारवाई करे। लोकतंत्र में वोट की राजनीति से अधिक महत्त्वपूर्ण है लोक की रक्षा, जिसके लिए तंत्र को सदैव तत्पर रहना चाहिए।
मणिपुर की घटना अन्य प्रदेशों और राजनीतिक दलों के लिए एक सीख होनी चाहिए, क्योंकि जब जनता जनार्दन के हित में कोई कानून बनता है, तो जरूरी है कि उसके लाभ, हानि, औचित्य, गुण-दोष और प्रतिक्रिया आदि की व्यापक रूप से शासकीय समीक्षा होनी चाहिए। भारत सरकार को भी प्रांतीय सरकारों के साथ मिल बैठ कर ऐसी प्रणाली विकसित करनी चाहिए, ताकि आग लगने पर कुआं खोदने के बजाय हर यत्न हो कि आग लगे ही नहीं। अन्यथा ‘उम्र बीत जाती है एक आशियां बसाने में, लोग थकते नहीं बस्तियां जलाने में’ के भयावह प्रतिबिंब को हमारा लोकतंत्र देखने को विवश होगा।
अशोक कुमार, पटना।
लापरवाही की हद
गैस त्रासदी की पीड़ा इस देश ने बहुत झेली है। भोपाल गैस कांड को भला कौन भूल सकता है, जिसने हजारों लोगों को अकाल मौत की नींद सुला दिया था। यूनियन कार्बाइड कंपनी की लापरवाही पर जिस तरह तत्कालीन सरकार ने पर्दा डाला, उसकी सजा आज तक कई परिवार भुगत रहे हैं। समय बीतने के साथ ही सारा मामला ठंडे बस्ते में चला गया। अब भी देश में गैस रिसाव की घटनाओं का सिलसिला बना हुआ है।
पिछले दिनों पंजाब में लुधियाना के ग्यासपुरा में जहरीली गैस रिसाव में कई लोगों की मौत से गैस रिसाव एक बार फिर चुनौती के रूप में सामने आई है। देखने में आता है कि औद्योगिक इकाईयां अपने फायदे के लिए नियमों को ताक पर रख देती हैं, जिससे हादसे घटित होते हैं। पटाखा फैक्ट्रियां भी काम करने वाले लोगों के लिए मौतगाह बनती रहती हैं, जहां आए दिन हादसे होते रहते हैं। सरकार को अपने नियामक तंत्र को पुख्ता बनाना चाहिए, जिससे इन पर निगरानी रहे और दुर्घटनाओं को टाला जा सके।
अमृतलाल मारू ‘रवि’, इंदौर।
समावेशी विकास
हाल में ही सामानों की एक आनलाइन आपूर्ति कंपनी के साझेदारों ने हड़ताल कर दिया। इसका कारण था डिलीवरी कीमत में कटौती। वास्तव में इस कंपनी का कोई स्थायी कर्मचारी नहीं है। यह असंगठित कामगार से कंपनी चलाती है। बड़े शहरों में रहने वाले असंगठित कामगार बेगारी और महंगाई के बढ़ती मार के कारण बिना किसी सामाजिक सुरक्षा के कंपनी में न चाह कर भी शामिल हो जाते हैं, ताकि परिवार और बच्चों का भरण पोषण हो सके।
ऐसी कंपनी की प्राथमिकता समय से सामान की आपूर्ति होती है। इसके कारण सड़क दुर्घटनाएं और अन्य हादसे भी हो जाते हैं। इस परिस्थिति में बिना सामाजिक सुरक्षा से परिवार पर खर्च का बोझ बढ़ता है, जिससे पारिवारिक स्थिति बदतर हो जाती है। अगर सामाजिक सुरक्षा उपलब्ध हो तो ऐसी स्थिति नहीं हो सकती। सरकार को ऐसी कंपनी के लिए स्वास्थ्य संबंधी सामाजिक सुरक्षा मानक बनाने की आवश्यकता है, ताकि गरीबी और असमानता कम कर समावेशी विकास सुनिश्चित हो सके।
रमण, पूर्णिया।
बेमानी सुरक्षा
हाल ही में तिहाड़ जेल में चार लोगों ने मिलकर टिल्लू ताजपुरिया नामक एक कैदी और इससे पहले अतीक और उसके भाई की भी हिरासत के दौरान हत्या कर दी गई। संपादकीय ‘असुरक्षित जेल’ (संपादकीय, 8 मई) में उल्लेख है कि देश की बड़ी, सुरक्षित और सीसीटीवी कैमरों से सुसज्जित तिहाड़ जेल में धारदार हथियारों का पहुंचना और हत्या होना दुर्भाग्यपूर्ण है।
कैदी और मुलजिम की इस तरह हत्या होना यह दर्शाता है कि सुरक्षा कर्मी, जेल कर्मी तथा पुलिस आदि उदासीन, भ्रष्ट या लापरवाह हैं। माना कि कैदी और मुलजिम दोषी या अपराधी हैं, लेकिन इनकी हत्या होने पर ड्यूटी पर तैनात कर्मी भी दोषी हैं, क्योंकि मृतक और परिजन सभी जेल और पुलिस को सुरक्षा को विश्वसनीय मानते हैं। सर्वाधिक सुरक्षित जेल में भी अगर कैदी की हत्या होने लगे तो फिर आने वाले वक्त में कैसी तस्वीर बनेगी।
बीएल शर्मा ‘अकिंचन’, उज्जैन।