आजकल देश के भीतर एक नई रिवायत चल पड़ी है कि कुछ तथाकथित और कृत्रिम स्वयंभू लोग किसी को भी ‘राष्ट्रवादी’ और ‘राष्ट्रद्रोह’ की प्रामाणिकता बांट रहे हैं। यह बहस वैचारिक संघर्ष या प्रतिस्पर्धा की नहीं है। इसके तहत अगर किसी मुद्दे को ज्यादा भुनाने की कोशिश हो रही है तो वह है सरकार के प्रति असहमति की रंजिश। देशभक्ति की परिभाषा तो यह कतई नहीं है कि हर मसले पर आप सरकार के प्रति समर्थन व्यक्त करें और उसके प्रति समर्पित हों। लेकिन आज हालत यह बना दी गई है कि अगर आप किसी भी मुद्दे पर किसी सत्ताधारी पार्टी के प्रति अपना विरोध जताएं तो आपको देशद्रोही करार दिया जा सकता है। मेरे विचार से ऐसा लोकतंत्र और ऐसी राष्ट्रभक्ति की परिभाषा नहीं गढ़ी गई है। हमारे संविधान निर्माता बाबा साहब आंबेडकर ने भी यह कहा था कि ‘शासक के प्रति ज्यादा समर्थित भाव शासक को तानाशाह बना देती है।’
लेकिन मौजूदा समय में स्थिति कुछ ऐसी विकट रूप ले चुकी है कि कुछ लोग सत्ता के विरोध का मनमाना मतलब लगा रहे हैं। बीते कुछ दिनों से दिल्ली की राजनीति में तरह-तरह की नूरा-कुश्ती देखी जा सकती है। न्याय के दर पर संवैधानिक कानून और न्याय की वकालत करने वाले वकील ही जब अनैतिक, अन्याय और असंवैधानिकता की पराकाष्ठा पर पहुंच कर आम जनता और पत्रकारों पर हमला करेंगे तो न्याय पर लोगों का भरोसा कैसे बना रहेगा।

यों आजकल नेताओं में एक नई होड़ और प्रतिस्पर्धा चल पड़ी है कि ढूंढ़-ढूंढ़ कर जयंती और पुण्यतिथि ट्वीट करते है, लेकिन ऐसे मसलों पर ये राजनीति के अलावा कुछ नहीं करते। याद रखने की जरूरत है कि सत्ता पाना और नशे में आना और सत्ता से जाना भी साबित हो सकता है। आए दिन जिस तरह से सत्ताधारियों द्वारा शाब्दिक हिंसा की जा रही है, इसलिए मेरे जेहन में अक्सर एक सवाल आता है कि क्या सरकार का मतलब सिर्फ सत्ता और ताकत होती है।
’प्रेरित कुमार, नई दिल्ली</p>