महिला समानता के कथन कागज में तो पारदर्शी लगते हैं, लेकिन उसे जमीन पर उतरने के लिए लंबी लड़ाई लड़नी पड़ती है। हाल में उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले के एक खाप पंचायत ने महिलाओं को जींस पहनने पर तुगलकी फरमान जारी कर अपने वर्चस्ववादिता और कुलीनता का निंदनीय सबूत पेश किया है। पंचायत ने महिलाओं को परंपरागत परिधानों यथा साड़ी, घाघरा, सलवार-कमीज धारण करने की बाध्यता तय की है, जिसके उल्लंघन पर महिलाओं को दंडित एवं सामाजिक बहिष्कार की भी घोषणा हुई है। बुनियादी सवाल यह है कि न्याय तंत्र और कानून की किताब क्या ऐसे आदेश पारित करने की शक्ति पंचायत को प्रदान करती है?

एक खास समुदाय की इस पंचायत ने ऐसी नीति बना कर अपनी स्वेच्छाचारी नीयत का परिचय तो दिया ही है, साथ ही साथ समानता के सिद्धांत और निजी इच्छा के संवैधानिक अधिकार का हनन भी किया है। महिला सशक्तिकरण के लिए उठती आवाजों और विभिन्न स्तरों पर इसके लिए किए जा रहे प्रयासों के बीच एक अहम सवाल है कि क्या वास्तव में हम महिलाओं के प्रति अपनी मानसिकता में परिवर्तन लाने में सफल हुए हैं।

विचारणीय यह भी है कि क्या देश के उस संविधान का सम्मान किया जा रहा है जो स्त्री-पुरुष के बीच भेद नहीं करता? ऐसे तमाम प्रश्न भी मुंह बाए खड़े हैं कि क्या समान अधिकार होते हुए भी जेंडर के आधार पर हमें अक्सर भीषण भेदभाव की कुत्सित प्रवृत्ति से सामना करना पड़ता है। विडंबना यह भी है कि भेदपूर्ण आख्यानों के बीच पीड़ित क्षेत्र का बौद्धिक वर्ग या तथाकथित उदारवादी समूह ऐसे फरमान पर मौनव्रती बना रहता है।

यह अफसोसजनक है कि स्वतंत्रता के सत्तर वर्षों के बाद भी महिलाओं को अपने छोटे से छोटे अधिकारों के लिए वह लड़ाई लड़नी पड़ती है जो पुरुषों को नहीं लड़नी पड़ती, क्योंकि वे पितृसत्तात्मक धारणा के पोषक हैं। हमारे समाज में एक वर्ग आज भी सक्रिय है जो महिला जगत के समानता और उत्थान में हाथ बंटा रहा है, जबकि बाकी वर्ग महिलाओं को कमतर दिखाने की जुगत में सदा प्रतिकूल आचरण अपनाते रहते हैं। भारतीय सेना में महिलाओं के स्थायी कमीशन मामले की सुनवाई के क्रम में तत्कालीन न्यायाधीश ने प्रेरक टिप्पणी की थी कि ऊंचे पदों पर महिलाओं का चयन देश की जीत है और महिला सशक्तिकरण के प्रयत्नों में आशा की किरणें दिखती हैं।

भारत गांवों के देश में नगरीय जीवन में महिलाओं के साथ घट रहे भेदभाव और प्रताड़ना के समाचार आ जाते हैं, लेकिन सुदूर ग्राम्य जीवन में निरक्षर महिलाएं जो रूढ़िवादी राग में अपने जीवन को बेबस होकर ढाल चुकी हैं, उनके असंख्य मामले आज भी वैचारिक तहखाने में दफन हो रहे हैं। आवश्यकता इस बात की है कि बराबरी के हक की लड़ाई सिर्फ भाषणों से नहीं, बल्कि धरातलीय कार्रवाई से ही मंजिल प्राप्त कर सकती है। ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ केवल दिखावे का नारा नहीं होना चाहिए। इसके दूरगामी यात्रा पथ में भेदभाव के कांटे अनेक मिलेंगे, जिसे समूल नष्ट करने के लिए कानून और कर्तव्य में तालमेल बिठाना होगा।
’अशोक कुमार, पटना, बिहार

बिन पानी किस ओर

‘सहेजना होगा बारिश का पानी’ (लेख, 16 मार्च) पढ़ा। पानी की प्रचुर उपलब्धता के बावजूद देश में पेयजल का संकट होना कहीं न कहीं हमारी और सरकार की उदासीनता का परिचायक है। पानी के मामले में हम समृद्ध जरूर हैं, लेकिन ज्यादातर पानी समुद्र की तरफ बह जाता है और कुल बारिश का काफी कम ही संचित कर पाते हैं। हम पानी का उपयोग तो कर लेते हैं, लेकिन उसे वापस पृथ्वी को देते नहीं। आज देश के अधिकांश हिस्सों में भूजल स्तर खतरनाक सीमा से भी नीचे चला गया है।

पानी का निर्माण नहीं किया जा सकता, हमें इसे संभालना ही होगा। बढ़ती आबादी ने पानी की कमी जैसी समस्या को और अधिक विकराल बना दिया है। गर्मी आते ही हर तरफ हाहाकार मच जाता है। गर्मी जाते ही पानी के भंडारण पर ध्यान नहीं दिया जाता। समय पूर्व तालाबों, कुओं, बावड़ियों की साफ-सफाई की जाए तो हम कुछ हद तक पानी की समस्या से बच सकते हैं। देश में कई नदियां प्रदूषित हैं। आज भी बहुत सारे लोगों को शुद्ध पानी पीने को नहीं मिल पा रहा है।
’साजिद अली, चंदन नगर, इंदौर, मप्र