पितृसत्तात्मक सोच भारतीय समाज का ऐसा शब्द है, जो पुरुषों को महिलाओं से श्रेष्ठ बताने का प्रयास करता है। इसका स्पष्ट अर्थ है कि महिला वही सोचे जो एक पुरुष सोचता है। अगर वह इससे अलग सोचती है तो उसे गलत मान लिया जायेगा। इसी सोच का परिणाम है कि त्याग, लज्जा, सहनशीलता जैसी बातों को महिलाओं का ही गुण बता कर उन्हें घर की चौखट तक सीमित करने की एक साजिश की जाती है, मानो महिला का काम पुरुष को संपूर्णता प्रदान करना हो। कहने को आज हम भले ही कह दें कि हम बहुत आधुनिक हो चुके हैं और महिलाओं की स्थिति ठीक हो चुकी है, लेकिन महिलाएं कब और कितनी आजाद हुई हैं, आज भी यह सवाल बना हुआ है। हाल ही में मध्यप्रदेश के अलीराजपुर और धार जिले में महिलाओं के साथ क्रूरता की दो घटनाओं को उदाहरण के तौर पर लिया जा सकता है, जो यह बताता है कि पुरुष समाज को एक बात हजम नहीं होती कि एक महिला ने उसकी इजाजत के बिना कोई कदम उठा लिया।

इसके अलावा हमारे देश में न जाने और ऐसी कितनी घटनाएं घटती होंगी जो दीवारों के पीछे दब जाती हैं। वे न तो मीडिया के सामने आ पाती हैं, न समाज के सामने। महिलाएं उन्हें खुद के जीवन का हिस्सा मान कर अत्याचार को बर्दाश्त कर रही हैं। इसलिए वक्त आ गया है कि सरकारों को और महिलाओं से संबंधित संस्थानों को गंभीरता से विचार करना चाहिए कि केवल कानून बना भर देने से इनको सुरक्षा नहीं मिलेगी, बल्कि कानूनों को सही समय पर और सही तरीके से प्रभावी भी बनाना होगा। अब हमें यह नहीं देखना चाहिए कि समाज में महिलाओं की संख्या कितनी है, बल्कि यह देखना चाहिए कि स्वतंत्र महिलाओं की संख्या कितनी है। तभी सही मायनों में हम एक सभ्य समाज का निर्माण करने की ओर बढ़ सकते हैं।

बहरहाल, भविष्य में ऐसी घटनाएं न घटें, इसके लिए सरकार उपाय कर सकती है। हम जानते हैं कि दूरदराज इलाकों में मीडिया की पहुंच नहीं होती है और ऐसी खबरें समाज के ज्यादातर लोगों की नजर से दूर रह जाती हैं। ऐसे में स्थानीय ग्राम सरपंच की जिम्मेदारी होनी चाहिए कि वह प्रशासन को ऐसी घटनाओं की जानकारी तुरंत उपलब्ध कराएं। एक निश्चित समय में महिला अधिकारियों द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों का भ्रमण किया जाना चाहिए और वहां महिलाओं की कार्यशाला आयोजित की जानी चाहिए। फिर महिलाओं से संबंधित सभी कानूनों की जानकारी हर एक महिला को प्रचार-प्रसार माध्यम के द्वारा उपलब्ध करानी चाहिए। ग्रामीण क्षेत्रों में महिला सुरक्षा को बढ़ावा देने के लिए ग्राम पंचायतों में सकारात्मक प्रतिस्पर्धा कराने की जरूरत है। फिर ऐसी घटनाएं घटने के बाद जल्द से जल्द और पारदर्शिता वाली कार्रवाई की जानी चाहिए। इसके अलावा गैर-सरकारी संस्थानों को भी अपनी सक्रियता बढ़ानी होगी तभी जाकर हम आत्मनिर्भर भारत सबका साथ सबका विकास जैसे महत्त्वाकांक्षी लक्ष्य को पा सकते हैं।
’सौरव बुंदेला, भोपाल, मप्र

फेरबदल की राह

पिछले दिनों केंद्र में नरेंद्र मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल के दूसरे वर्ष समाप्त होते ही केंद्रीय मंत्रिमंडल में फेरबदल किया गया है. जिस पर देश के हर छोटे-बड़े राजनीतिक पार्टियों का ध्यान जाने लगा है। नए मंत्रिमंडल में अधिकतर युवा राजनेताओं सहित ग्यारह महिला मंत्री को शामिल किया गया है। माना जा रहा है कि सरकार के दूसरे कार्यकाल के बचे हुए वर्षों में विकास की रफ्तार को बढ़ाने के लिए नए और युवा चेहरों को मंत्रिमंडल में शामिल किया गया है, जो नए उमंगों के साथ विकास की डोर को आगे बढ़ाने की कोशिश करेंगे। उम्मीद की जा रही है कार्यकाल की बचे हुए तीन वर्षों में केंद्र द्वारा किए जाने वाले विकास का प्रभाव जमीनी स्तर पर हर समुदाय पर देखने को मिले, ताकि पिछड़े समुदाय के लोगों को भी आगे बढ़ने का अवसर मिल सकता है। विकास की दौड़ में किए जाने वाले बदलाव का असर जमीनी स्तर पर और ज्यादा देखने को मिल सकता है।
’मुकेश कुमार, पूर्वी चंपारण, बिहार</p>