राजनीतिकों द्वारा आए दिन बोले जा रहे अनर्गल बोलो पर लगाम लगाना अत्यंत आवश्यक प्रतीत होता है। अन्यथा आरोप-प्रत्यारोप का ही सिलसिला चलता रहा तो आम नागरिकों से वास्तविकता का टूटता नाता नकारात्मक परिस्थिति का कारक सिद्ध हो सकता है। स्वस्थ राजनीति और समाज की संरचना में जरूरत से ज्यादा मतभिन्नता बाधक होकर अनावश्यक विवाद की जनक सिद्ध हो रही है। विकसित भारत की परिकल्पना को साकार करने के लिए राजनीति का शुद्धिकरण समय की मांग है। इन दिनों राजनीति में सच को झूठ और झूठ को सच सिद्ध करने की होड़ सी चल रही है। ऐसे वैसे, चाहे जैसे जनमत का समर्थन पाना राजनेताओं का परम लक्ष्य बन गया है। लक्ष्य को पाने के लिए नैतिक-अनैतिक का भेद नहीं किया जाता।
यह स्थिति लोकतंत्र के भविष्य के लिए ठीक नहीं कही जा सकती। निरंकुश राजनेताओं ने मात्र अनर्गल प्रलाप के माध्यम से राजनीतिक परिस्थितियों को दूषित कर रखा है। इन परिस्थितियों के चलते आम नागरिक राजनीतिक दृष्टि से भ्रमजाल में उलझा हुआ दिखाई देता है। लोकतंत्र के भविष्य की दृष्टि से यह स्थिति चिंताजनक ही है। अपने-अपने राजनीतिक स्वार्थों के चलते इन विचारणीय पहलुओं पर गौर नहीं किया जाना गहन चिंता का विषय है। दरअसल, राजनीति में विरोधाभासी विचारधाराएं कालांतर में समाज में गुठली संघर्षों को भी जन्म दे सकती है। अलग-अलग जाति और अलग-अलग वर्ग अलग-अलग राजनीतिक संरक्षण प्राप्त करते हुए नीति नियमों के विपरीत आचरण करते हुए अराजकता को जन्म दे रहा है।
कुल मिलाकर विकसित भारत की परिकल्पना को साकार सिद्ध करने के लिए राजनीति के शुद्धिकरण की दिशा में ठोस कदम उठाना आवश्यक है। इस दिशा में सर्वप्रथम आवश्यकता इस बात की है कि अनर्गल आरोप-प्रत्यारोप पर विराम लगाया जाए। निश्चित रूप से जब तक आम नागरिक अपना विषय विशेष पर स्पष्ट अभिमत नहीं रखेंगे, तब तक लोकतंत्र की परिपक्वता में संदेह बना रहेगा। ऐसे में यह जरूरी है कि राजनीति में प्रामाणिक और नैतिक मूल्यों की स्थापना की दिशा में कारगर कदम उठाया जाए। निश्चित रूप से जब राजनीति में निराधार को आधार नहीं बनाया जा सकेगा, तब ही नागरिकों की राजनीतिक जागृति, सकारात्मक परिणाम दे सकेगी। अन्यथा भ्रमजाल में निरंतर उलझते नागरिक अस्थिर मन से मतदान करेंगे तो वह भ्रमित अवस्था का ही परिणाम देगा।
बेहतर हो अगर राजनीतिक और सामाजिक नेतृत्व उन विषयों को चिह्नित करें, जिस पर की सर्वमान्य स्थिति होना राष्ट्र और समाज के लिए परम आवश्यक प्रतीत होता हो। यह निश्चित है कि मतभिन्नता की स्थिति में अलग-अलग वर्ग एवं समूह की शारीरिक एवं मानसिक श्रम शक्ति अनावश्यक रूप से जाया होती रहती है। अनावश्यक टकराव की स्थिति समाज में कानून और व्यवस्था के सम्मुख भी चुनौती बना करती है। ऐसे में जरूरत इस बात की है कि राजनीति हो या समाज, लेकिन नेतृत्व को सर्वसम्मत विषयों पर आम सहमति बनाने का प्रयास अवश्य करना चाहिए। ऐसा होने पर भ्रमजाल में उलझा आम आदमी महत्त्वपूर्ण विषयों पर अपनी स्पष्ट राय बना सकता है।
’राजेंद्र बज, हाटपीपल्या, देवास, मप्र
सह-अस्तित्व के साथ
सभी जीव-जंतुओं और पक्षियों का हमारे जीवन में बहुत अधिक महत्त्व है। प्रकृति ने इनके रहने के लिए सारी सुविधाएं उपलब्ध की है, लेकिन मानव अपने ऐश्वर्य और वैभव में यह भूल गया है। जिस प्रकृति ने उनके जीवन के लिए सब कुछ मुहैया कराया है, उसकी अहमियत समझना बेहद जरूरी है। लेकिन मनुष्य इस सुंदर प्रकृति और वातावरण के साथ क्या कर रहा है? केवल उसे गंदा, प्रदूषित कर रहा है और पृथ्वी के हर हिस्से में अपने पैर पसार रहा है। मुनाफे के लिए जीव-जंतुओं के आवास को उजाड़ कर इमारतें बना रहा है, व्यावसायिक गतिविधियां संचालित कर रहा है।
कुछ दशक पहले तक वन क्षेत्रों में मनुष्य की गतिविधियां ज्यादा नहीं थीं। पर मनुष्य के वैज्ञानिक अविष्कार तथा बढ़ती जनंसख्या कारण पृथ्वी को बहुत हानि हुई। पंद्रह साल पहले पृथ्वी का सत्ताईस फीसद हिस्सा खाली जंगल के रूप मे जीव-जंतुओं का आवास हुआ करता था। वह अब घट कर उन्नीस फीसद रह गया है, जिस कारण पशु-पक्षियों को अपना आवास छोड़ कर तमाम मुश्किलों और संकट का सामना करते हुए दूसरे जंगलों में जाना पड़ता है। फिर भी मनुष्य कुछ चीजों को देख कर अनदेखा कर रहा है।
प्रदूषण के कारण पक्षी आकाश में नहीं दिखाई देते। वे शहरों को छोड़ कर चले गए हैं। शहरों में केवल कबूतर, कौवे ही दिखाई देते है गांव मे खेत-खलिहान होने के कारण उन्हें पीने योग पानी और भोजन मिल जाता है, लेकिन अब गांव भी शहर का रूप धारण कर रहे हैं। इसी कारण जीव-जंतु या पशु-पक्षियों कि समस्या बढ़ती जा रही है। मनुष्य को अपने अस्तित्व को बचाने के लिए अपना कुछ समय निकाल कर जीव-जंतुओं के लिए दाना-पानी या रोटी रखनी चाहिए।
’प्रियंका चेची, फरीदाबाद, हरियाणा