संसद का मानसून सत्र शुरू होने जा रहा है। इस बार प्रश्नकाल को पूरी तरह से निलंबित कर दिया गया है, साथ ही शून्यकाल के समय को तीस मिनट तक सीमित कर दिया है। इनके अतिरिक्त निजी सदस्य विधेयक को भी निलंबित किया गया है। विपक्षी दलों के साथ-साथ संविधान विशेषज्ञों ने भी इस कदम की आलोचना की है।
संसदीय व्यवस्था में प्रश्नकाल एक ऐसा माध्यम है, जिसके द्वारा संसद प्रशासन पर निगरानी रखती है और इसका प्रयोग उन सब देशों में किया जाता है, जहां प्रतिनिधि संसदीय लोकतंत्र की प्रणाली विद्यमान है। संसद सदस्यों को जनहित से संबंधित मामलों पर सरकार के मंत्रियों से प्रश्न पूछने और जानकारी हासिल करने का अधिकार होता है। सदन में प्रश्न यह जानने के लिए किए जाते हैं कि सरकार द्वारा घोषित और संसद द्वारा अनुमोदित राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय नीतियों को उचित रूप से कार्य रूप दिया गया है या नहीं।
ऐसे में यदि केंद्र सरकार द्वारा कोविड-19 की आड़ में संसदीय कार्य प्रणाली के सबसे महत्त्वपूर्ण भाग को निलंबित करना दुर्भाग्यपूर्ण है। यदि केंद्र सरकार ने सुरक्षित दूरी और कोविड-19 से जुड़े अन्य पहलुओं के आधार पर यह फैसला किया है तो इसमें सुधार की आवश्यकता थी। बेहतर यह होता कि जिस तरह से संपूर्ण विश्व में महत्त्वपूर्ण बैठकें आभासी बैठकों के रूप में हो रही हैं और विभिन्न देशों में संसदीय व्यवस्था भी आभासी कार्यवाही के माध्यम से चल रही हैं, तो भारत सरकार को भी इसी दिशा में आगे बढ़ना था।
महामारी के कारण संसदीय कार्यवाही के सबसे महत्त्वपूर्ण भाग को स्थगित करना कहीं से भी उचित प्रतीत नहीं होता। मौजूदा समय में स्थिति यह है कि संसद का कोई भी सदस्य मौजूदा मंत्रिमंडल से कोई भी प्रश्न नहीं पूछ सकता है। स्पष्ट है कि आज जब बेरोजगारी चरम पर है, छात्र परीक्षाओं में लेट-लतीफी और भ्रष्टाचार के खिलाफ केंद्र सरकार के विरुद्ध उठ खड़े हुए हैं, निजी अस्पतालों द्वारा किस प्रकार से कोविड-19 की आड़ में लोगों को लूटा जा रहा है, ऐसे में संसद का कोई भी सदस्य आगामी सत्र में छात्रों और आम नागरिकों के हित से जुड़े हुए प्रश्न नहीं कर पाएगा।
’कुलिंदर सिंह यादव, दिल्ली</p>