रूस अगर यूक्रेन पर हमला करता है, तो भारत को तटस्थता अपनानी चाहिए। भारत के लिए इस मामले में किसी की तरफ भी बोलना इधर कुआं, उधर खाई वाली स्थिति उत्पन्न करना है। रूस भारत का चालीस-पचास साल पुराना एक ऐसा मित्र है, जिसके साथ दगाबाजी करना भारत के लिए कतई संभव नहीं है। दोनों की दोस्ती जवाहरलाल नेहरू के जमाने से जारी है। उस समय यह सोवियत संघ हुआ करता था। आज इसका विघटन हो चुका है। अब यह सोवियत रूस कहलाता है। आज रूस ही वह एक मात्र देश है, जिसने हमेशा ही भारत का दृढ़ता के साथ दोस्ताना निभाया है। चाहे कश्मीर का मुद्दा हो या पाकिस्तान या चीन से तनातनी का मुद्दा हो, हमेशा रूस हमारा एकमात्र दोस्त रहा है जिसने भारत की हर तरह से मदद की है।
अमेरिका आज उम्मीद करता है कि भारत रूस के मामले में उसका साथ देगा। मगर भारत को अपने हर तरह के हितों को ध्यान में रखते हुए ही कोई कदम उठाना चाहिए। भारत-अमेरिका की दोस्ती के वर्ष उंगली पर गिने जा सकते हैं। जिमी कार्टर के जमाने से ही हमारा झुकाव अमेरिका की तरफ बढ़ा है। इस दोस्ती को बढ़ावा ओबामा के जमाने में मिला और इसे भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ट्रंप के समय में प्रगाढ़ता दी। ऐसे में हमें दोस्ती का दायरा रूस के साथ कभी कम नहीं करना चाहिए। आज क्वाड का देश होने के लिए हम प्रतिबद्ध है, पर हमें कभी रूस के खिलाफ कोई बयान नहीं देना चाहिए।
क्वाड नियम आधारित अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को बनाए रखने का पक्षधर है। यूरोप और अन्य क्षेत्रों की तरह नियम आधारित व्यवस्था हिंद प्रशांत क्षेत्र में भी समान रूप से लागू होती है। अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में कई नियम हैं। बड़े देश छोटे देशों को परेशान नहीं कर सकते। बलपूर्वक नहीं हो सकता सीमा का पुनर्निर्धारण। मगर हमें हमारा ध्येय एकमात्र यही रखना चाहिए कि हम इस मामले में तटस्थता की नीति अपनाएं और अपने मित्र रूस को कतई नाराज न करें। आज उससे हमारे न केवल व्यापारिक संबंध हैं, बल्कि हथियार खरीदी और सांस्कृतिक संबंध भी काफी मजबूती से बने हुए हैं।
मनमोहन राजावत ‘राज’, शाजापुर
धार्मिक उन्माद
भारत जैसे विविधता पूर्ण संस्कृति वाले देश में आए दिन धर्म के नाम पर फैलाया जाने वाला उन्माद चिंता का विषय है। इससे न सिर्फ देश की बदनामी होती है, बल्कि हमारी ‘सर्व धर्म सम भाव’ वाली संस्कृति पर भी प्रश्न चिह्न लगता है। हाल ही में कर्नाटक के शिवमोगा में हुई नृशंस हत्या के बाद एक बार फिर बवाल मच गया है।
यह कितनी बड़ी विडंबना है कि धर्मग्रंथों में सबसे ज्यादा प्रेम, दया, करुणा और त्याग की बात कही गई है, लेकिन सबसे ज्यादा कू्ररता और घृणा धर्म के नाम पर ही फैलती है। इसकी वजह धर्म को सत्ता की तरह इस्तेमाल करना है। धर्म की सत्ता का इस्तेमाल करने वाले सबसे ज्यादा उसे सांस्थानिक रूप देते हैं। धार्मिक संस्थाएं व्यक्ति के व्यवहार को नियंत्रित करने लगती हैं। क्या एक सहज व्यक्ति इस बात को महसूस नहीं कर सकता कि उसके धार्मिक व्यवहार अपनी अंतरात्मा से संचालित हो रहे हैं या किसी संगठन के विचार उसे संचालित कर रहे हैं?
आस्था के नाम पर तर्क और सवाल का निषेध किया जाता है, लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि तर्क और सवाल ही हमें धर्मांधता से बचाते हैं। क्या कबीर ने मौलवियों से, पंडितों से सवाल नहीं किया था? क्या मार्टिन लूथर ने चर्च और पोप से सवाल नहीं किया था? क्या सहज धार्मिक व्यक्ति में तर्क और सवाल नहीं होते? शिवमोगा की घटना भारतीय समाज के लिए कभी भी गौरव की बात नहीं हो सकती है। आज किसी भी धर्म के अंदर कट्टरता और उदारता के विचार को पहचानने की जरूरत है।
अनुज कुमार शर्मा, जौनपुर