इसमें सैकड़ों पर्वत, असंख्य नदियां, उपजाऊ मृदा और अनुकूल जलवायु आदि शामिल हैं। पर जब किसी संसाधन का कुशलतम उपयोग नहीं होता, तब वह निरर्थक बन जाता है। उपयोग में लाने के लिए सबसे पहले जरूरी है कि विकारी तत्त्वों से उक्त संसाधन की सुरक्षा की जाए।
आज हमारे सामने इन्हीं संसाधनों को बचाने की चुनौती है, ताकि भविष्य सुखमय हो। हाल ही में पहाड़ी इलाकों में घटित हुई भूस्खलन की घटनाओं ने सिद्ध कर दिया है कि अगर अविलंब अनुचित मानवीय हस्तक्षेप पर विराम नहीं लगाया गया तो यह न केवल भारत की प्राकृतिक संपदा का ह्रास होगा, बल्कि व्यापक स्तर पर जानमाल की हानि भी होगी।
जल जैसे अमूल्य संसाधन के संबंध में यह और भी ज्यादा भयंकर है। इससे प्रभावित होने वालों में ग्रामीण समुदाय खतरनाक क्षेत्र में हैं। भारत का भूजल स्तर दिन-प्रतिदिन गिरता जा रहा है। इससे शहरी आबादी को जलापूर्ति करना काफी चुनौतीपूर्ण सिद्ध हो रहा है, फिर भी कुछ मूल्य चुकता करने पर शहरी आबादी को शुद्ध जल मिल जाता है।
पर गांवों के संबंध में समस्या अपेक्षाकृत अधिक विकराल है, जहां सरकारी तंत्र द्वारा ग्रामीण जन की उपेक्षा और शिक्षा का अभाव इसको भयंकर रूप प्रदान करता है। परिणामस्वरूप ग्रामीण क्षेत्रों में अप्रत्याशित रूप से बीमारियों में वृद्धि देखी जा रही है। चूंकि ग्रामीण भारत में चिकित्सा का ढांचा दुर्बल है, ऐसे में मृत्यु की आशंका अधिक रहती है।
गांवों में गिरते भूजल स्तर ने किसानों पर विशेष तौर पर दुष्प्रभाव डाला है, क्योंकि अब कृषकों को अधिक गहरे वाले नलकूपों की आवश्यकता होगी जो उन पर आर्थिक बोझ को बढ़ाएगा। इसके लिए अधिक ऊर्जा की भी जरूरत होगी जो भारत के ऊर्जा नीति निर्माताओं के लिए चिंता का विषय बन सकती है। हालांकि भारत में नदियों की कमी नहीं है।
प्राचीन काल से लोग नदियों के जल से कृषि पशुपालन जैसे कार्य करते आए हैं। लेकिन आज कुछ नदियों का जल इतना विषैला हो गया है कि यह किसी काम के लिए उपयोग नहीं किया जा सकता है। समय की मांग है की सरकार गांवों को केंद्र में रखते हुए अधिक प्रभावी रूप से जल संरक्षण अभियान का क्रियान्वयन करे।
मोहम्मद अफजल, दिल्ली विवि।
इलाज की सूरत
‘चिकित्सा क्षेत्र में सहायकों की कमी’ (लेख, 12 मई) पढ़ा। विश्व भर में नर्सों की सेवा के बिना स्वास्थ्य सेवाओं की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। डाक्टर भरपूर फीस लेने के बावजूद एक मरीज को पांच से दस मिनट से भी कम समय देते हैं! वही एक नर्स अस्पताल द्वारा दी जाने वाली मामूली तनख्वाह पर कई बार 12-12 घंटों तक मरीजों की सतत सेवा करती है।
नर्सों का कार्य सेवा कार्य है। मगर वर्तमान युग में जीवनयापन के लिए पैसे की भी सख्त जरूरत होती है। ऐसे में बड़े अस्पतालों को, जो मरीजों से भरपूर पैसा वसूल करते हैं, नर्सों की तनख्वाह व अन्य सुविधाएं अपनी आय के 25 फीसद हिस्से के रूप में प्रदान करना चाहिए। भारत में निजी अस्पतालों में तो नर्सिंग स्टाफ पर्याप्त मौजूद रहते हैं और उनकी कार्यदक्षता में भी कोई शंका नहीं है! लेकिन निजी क्लीनिकों में बिना प्रशिक्षित नर्सों को भी काम पर रख लिया जाता है और वे वहीं काम करते-करते ही प्रशिक्षण प्राप्त करती हैं, जिसमें भूल चूक होने की तकलीफ मरीज को भुगतनी पड़ती है।
सरकार ने 157 नए नर्सिंग कालेज खोलने की घोषणा की है जो जरूरत के मुताबिक बहुत ही कम है। हमारे देश में प्रति एक हजार व्यक्ति पर 1.7 नर्स हैं, जबकि एक आदर्श मानक के मुताबिक एक हजार व्यक्ति पर कम से कम चार नर्स होना चाहिए। गांवों में तो स्थिति और भी बदतर है। आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं और आशा कार्यकर्ताओं को भी प्राथमिक चिकित्सा और दवाई वितरण का कार्य सौंपा गया है।
लेकिन इनको दिया जाने वाला माय मानदेय अभी बहुत ही कम है। केंद्र और सभी राज्य सरकारों को सरकार द्वारा निर्धारित न्यूनतम वेतन आंगनबाड़ी और आशा कार्यकर्ताओं को देना चाहिए।
विभूति बुपक्या, खाचरोद, मप्र।
विचित्र धुन
यह बात हम सभी जानते हैं कि आजकल की नई पीढ़ी खुद को आधुनिक युग में जोड़ना चाहती है। यह बात बिल्कुल सही है सोशल मीडिया में रील पर मिलने वाली प्रतिक्रियाएं या इन सबमें भी व्यवसाय का एक अच्छा-खासा जरिया है, पर जिस तरह से युवाओं ने ‘रील’ को अपने ऊपर हावी होने दिया है, इसका परिणाम बेहद खतरनाक होने वाला है।
लोग मेट्रो, ट्रेन, बीच सड़क पर रील बनाने के चक्कर में खुद को जोखिम में डालते हैं। किसलिए? सिर्फ उस पर पसंदगी और दृश्यता जैसी प्रतिक्रिया पाने के लिए? क्या लोगों की जिंदगी की कोई कीमत नहीं है? इस सबकी वजह से कितने युवाओं की जान चली जाती है। अगर इसका अलग से विश्लेषण किया जाए तब लोगों को पता चलेगा कि अपने ऊपर रील को हावी देने का क्या अंजाम होता है।
सृष्टि मौर्य, फरीदाबाद, हरियाणा।
अनुमानों की पोल
हाल ही में कर्नाटक में विधानसभा चुनाव खत्म होते ही शाम को टीवी चैनल चुनाव-बाद मतदान आधारित अपने-अपने पूर्वानुमान प्रस्तुत करते में जुट गए। हर जुबान पर यही चर्चा होने लगी। ऐसा हर चुनाव के बाद होता है। कुछ चैनल सबका निचोड़ पूर्वानुमान भी प्रस्तुत करते दिखें। अक्सर देखने में आता है कि एक ‘एग्जिट पोल’ के नतीजे दूसरे से हमेशा भिन्न होते हैं।
लेकिन हर एग्जिट पोल करने वाली एजंसी दावा करती है कि उसका आकलन सटीक है। लेकिन ‘एग्जिट पोल’ की पोल तब खुलती है जब मतगणना के परिणाम आते हैं। मतगणना के परिणाम किसी-किसी एजंसी के पूर्वानुमान के आसपास हो सकते हैं, पर हमेशा भिन्न ही होते हैं। ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि ज्यादातर ‘एग्जिट पोल’ भ्रामक आकलन और आंकड़े प्रस्तुत करते हैं। फिर भी इस तरह के पूर्वानुमानों पर आधारित नतीजे पेश करने वाली एजंसियों की न तो जिम्मेदारी और न ही जवाबदेही तय है।
दल सिंह खरत, गाजीपुर, दिल्ली।