हिमाचल प्रदेश में बर्फबारी शुरू हो चुकी है। इसके नजारे लेने के लिए धीरे-धीरे पर्यटकों का तांता लगना शुरू हो जाएगा और क्रिसमस और नववर्ष के आगमन पर देश-विदेश से पर्यटकों का आना भी प्रदेश में बढ़ जाएगा। प्रदेश सरकार पर्यटकों को हर सुविधा उपलब्ध कराने के लिए बहुत बड़े इंतजाम भी करती है। वर्ष भर पर्यटक प्रदेश की प्राकृतिक शोभा का लुत्फ उठाने के लिए भारत से ही नहीं, बल्कि विदेशों से भी प्रदेश के विभिन्न स्थलों पर आते रहते हैं। लेकिन पर्यटक उन्हीं पर्यटन स्थलों का रुख करते हैं, जिनका जिक्र उन्होंने इंटरनेट या मीडिया के अन्य साधन द्वारा प्राप्त किया होता है।

अगर प्रदेश सरकार कोशिश करे तो पर्टयन को और बढ़ावा मिल सकता है। इसके लिए एक तो प्रदेश में जितने भी ऐतिहासिक प्राचीन स्थान हैं, जिनमें राजा-महाराजाओं के किले या अन्य कोई विरासत है, उसका प्रचार अखबार, इंटरनेट या मीडिया के अन्य साधनों द्वारा किया जाए, क्योंकि विदेश के ही नहीं, बल्कि भारत के बहुत से दूसरे राज्यों के लोग भी इनके बारे में कुछ खास नहीं जानते हैं। इसीलिए जब भी किसी दूसरे राज्य के किसी शहर में घूमने जाना हो तो वे इस असमंजस में पड़ जाते हैं कि प्रदेश के किस क्षेत्र में जाया जाए। प्रदेश के बहुत से ऐसे क्षेत्र हैं, जो पर्यटन की दृष्टि से तो बहुत अच्छे हैं, लेकिन उन क्षेत्रों तक पहुंचने के लिए परिवहन की सुविधा नहीं है।

सड़कों पर जाम से भी पर्यटकों को असुविधा न हो, इसके लिए सरकार और प्रशासन को पुख्ता इंतजाम करने चाहिए। अगर सरकार रेल लाइनों के विस्तार के लिए और जिन क्षेत्रों तक रेल लाइनें पहुंचनी मुश्किल हैं, वहां तक सड़क मार्ग को दुरुस्त करे तो कुछ महत्त्वपूर्ण काम हो सकता है। पर अफसोस की बात यह है कि प्रदेश के बहुत से क्षेत्रों में रेल लाइनें वही हैं, जिनका अंग्रेज विस्तार करके गए थे।

इसी के साथ सरकार को चाहिए कि वे टैक्सी, होटलों या पर्यटकों के ठहरने की जगहों की कीमतों को स्थिर किया जाए, क्योंकि कुछ लोग बाहरी पर्यटकों से किसी भी प्रकार की सुविधा देने के बदले खूब धनराशि वसूलते हैं। प्रदेश सरकार अगर ऐसी-ऐसी छोटी-छोटी बातों पर गौर करे तो प्रदेश में हर वर्ष पर्यटकों का तांता लग जाए। इससे प्रदेश के कुछ लोगों के रोजगार के लिए शुभ संकेत होगा तो दूसरी ओर प्रदेश की आर्थिक स्थिति में कुछ हद तक बेहतरी आएगी।
राजेश कुमार चौहान, जलंधर, पंजाब</p>

सुरक्षा के नाम पर

लापरवाही के निशाने’ (संपादकीय, 7 दिसंबर) पढ़ा। नगालैंड के ओटिंग के तिरु में हुई घटना कोई ऐसा प्रसंग नहीं है, जिस पर सिर्फ खेद जताया जा सके या भुला दिया जाए। इस घटना में कम से कम पंद्रह लोगों के मारे जाने की खबर है। मरने वाले कोई आतंकवादी या उग्रवादी नहीं थे और उनके पास न कोई अवैध हथियार था। वे सभी आम लोग थे। वे लोग, जिन्हें सिर्फ वोट मांगने के वक्त ही खास समझा जाता है। उनकी गलती भी क्या थी? यही कि वे कोयला खदान से एक वाहन पर सवार होकर लौट रहे थे। सेना के जवान किसी प्रतिबंधित संगठन की गतिविधि की गुप्त सूचना पर मोर्चा संभाले बैठे थे और ये मजदूर उसी रास्ते से गुजर रहे थे। सेना ने उन्हें उग्रवादी समझ लिया। गोलियों से भून दिया। रक्षक ही भक्षक बन गए। उनकी उम्मीदों को रौंद दिया गया।

असम राइफल्स की यह कार्रवाई अफस्पा से मिले अधिकार के तहत की गई। अफस्पा यानी सशस्त्र बल विशेष अधिकार कानून, जो सुरक्षा बलों को कहीं भी अभियान चलाने और किसी को भी बिना वारंट गिरफ्तार करने का हक देती है। इसी हक ने उन निर्बल आम लोगों की छाती छलनी कर दी। इस पर उठने वाले सवाल सिर्फ आज के नहीं। जब यह कानून लाया गया था, उसी समय से इसका विरोध हो रहा है।

इसके गलत उपयोग के आरोप लगते रहे, कई सबूत भी पेश किए गए, पर इसे हटाया नहीं गया। यह कानून भारत के जिस क्षेत्र में भी लागू है, वहां इसके गलत उपयोग की शिकायत हुई। भारत के आम लोगों को इस कानून की जरूरत नहीं है। उग्रवाद से लड़ने के लिए सेना को अधिकार मिलना चाहिए, लेकिन जो अधिकार मिले हैं, जिनकी रक्षा के लिए ये अधिकार मिले हैं, उनके ही खिलाफ इसका प्रयोग कहां तक जायज है।
अन्वित कुमार, पटना, बिहार

नियम के बजाय
छोटी उम्र से कहावत सुनती आ रही हूं कि एक गंदी मछली पूरे तालाब को गंदा कर देती है। यानी अगर पूरे समूह में से एक व्यक्ति भी दुष्ट हो तो वह पूरे समूह को दुष्ट बनाने या उसकी छवि को वैसा दर्शाने के लिए काफी होता है। आज कोई व्यक्ति अगर अधिकार और कर्तव्य की बात करता है, तो उसे कहा जाता है कि उसने अब तक वास्तविक जीवन में कदम नहीं रखा। खैर, ठंड के मौसम में शाम को गरमा गरम चाय मिल जाए तो उसका आनंद ही और कुछ होता है। वही आनंद लेने मैं और मेरे कुछ दोस्त चाय पीने निकले।

चाय की टपरी के पास पहुंचे तो देखा कि पुलिस की गाड़ी खड़ी थी। कुछ पुलिस वाले कुछ राह चलती गाड़ियों को रोक सड़क किनारे लगवा रहे थे, तो कुछ पार्किंग में लगी गाड़ी के मालिक को बुला उसकी चाभी हथिया रहे थे। मेरी समझ में तब भी कुछ नहीं आया, जब एक लड़का हेलमेट पहने आया, गाड़ी लगाई और चाय पीने ही लगा था कि उससे उसकी चाभी मांगी। लड़का सहम गया और उसने चाभी दे दी।

यह घटना आम थी। आज इसे आम ही माना जाने लगा है। लेकिन क्या सचमुच यह तरीका सही है? अगर गाड़ी वाले गलत थे, तो पुलिस की कार्रवाई सिर्फ चाबी लेने तक सीमित क्यों थी? क्या पुलिस इस समस्या से निपटने की व्यवस्था नहीं कर सकती, जो रोजाना कई अनजान लोगों को नियमों को धता बताने पर मजबूर करती होगी?
राखी पेशवानी, भोपाल, मप्र