फिल्म कश्मीर फाइल्स सिने जगत में कम, राजनीतिक मंचों पर ज्यादा धूम मचाए हुई है। दुर्भाग्यपूर्ण घटी घटनाएं निश्चित ही मानव मन को आहत करती हैं। उनकी भर्त्सना सदैव होती है। आतंक के शिकार कश्मीरी पंडितों की क्षति किसी भी स्तर से पूर्ति नहीं की जा सकती। उक्त विभीषिका के समय राज्य में जगमोहन राज्यपाल और भाजपा के सहयोग से देश के प्रधानमंत्री वीपी सिंह थे, जो लोमहर्षक घटना को रोकने में पूर्णत: विफल रहे। फिल्म में जिन दृश्यों का चित्रांकन किया गया है, वे निश्चय ही वेदना को बढ़ाते हैं। पर जख्मों को सहानुभूति और सद्भाव से भरने के उपक्रम होने चाहिए, न कि उन्हें कुरेद कर।

इस फिल्म का उद्देश्य अगर अतीत को हूबहू परोसते हुए सच्चाई से अवगत कराना है, तो यह स्तुत्य है। मनोविज्ञान की प्रयोगशाला ने यह सिद्ध कर दिया है कि दिल और दिमाग को झकझोरने वाली घटनाएं प्राय: इंतकाम का रास्ता तलाशती हैं। ऐसी फिल्म से समाज में अगर विभेद और वैमनस्य की खाई चौड़ी हुई, तो यह माना जाएगा कि फिल्म निर्माता का भीतरी भाव दुराग्रह और पूर्वाग्रह से भरा हुआ था। शास्त्रों ने ऐसे मामलों में ‘सत्यम् ब्रूयात प्रियम् ब्रूयात, न ब्रूयात सत्यम अप्रियम’ का अनुकरणीय पाठ दिया है।

यह घोर आश्चर्य है कि 1990 की हृदय विदारक घटना की जांच का क्या परिणाम हुआ, कितने लोगों को सजा हुई और कितने पीड़ित परिवारों को मुआवजा मिला- यह देश के समक्ष नहीं लाया जा सका है। वर्षों से कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास के मंगलगान गाए जा रहे हैं, लेकिन आज तक कोई श्वेत पत्र जारी नहीं हो सका कि अद्यतन प्रगति इस मामले में क्या है। पीडीपी सरकार के साथ भाजपा की गलबहियां काल में भी पीड़ित परिवारों की सुधबुध लेने की कोई आहट नहीं सुनाई दी। करुणा के मात्र गीत गाने से इसका हल नहीं होता, बल्कि पीड़ित परिवारों के राहत के समुचित उपाय भी मानवीय हितार्थ आवश्यक हैं।

फिल्म से शांति और सद्भाव अगर बिखरे और घृणा भड़काने वाली प्रवृत्ति अपना दामन न फैलाए, तो घाटी की लहूलुहान माटी में केसर की सुगंध लोगों को सुवासित करेगी। यह बुनियादी सवाल हर किसी के मन को आज व्यथित कर रहा है कि इसका समाधान कैसे हो। गड़े मुर्दे उखाड़ने से बदबू ही आएगी, इसलिए अमानवीय घटनाओं की पुनरावृत्ति देश की किसी धरा पर न हो- इस हेतु लोकतंत्र के पहरुओं को उपाय करने होंगे। फिल्म बाक्स आफिस पर भले सफल हो जाए, लेकिन उससे ज्यादा जरूरी है कि देश के लोगों के हृदय में उस घटना से सीख लेकर करुणा के साथ-साथ शांति और समन्वय का भाव भरे।
अशोक कुमार, पटना</p>

नाहक वितंडा

संसद द्वारा निरस्त साहूकारों को जमाखोरी और कालाबाजारी की अनुमति देने वाले काले कृषि कानून को किसान हित में बताना संसद और सर्वोच न्यायालय की अवमानना है (22 मार्च, जनसत्ता)! यह सरकार द्वारा नामित समिति की निष्पक्षता पर भी गंभीर सवाल खड़े करता है! देश का दुर्भागय है कि वर्ष-1990 के बाद कारपोरेट के बिकाऊ अर्थशास्त्री बिना कृषि ज्ञान और ग्रामीण परिस्थियों को समझे, अव्यावहारिक और किसान-विरोधी काले कृषि कानून और योजनाएं (जीरो बजट खेती आदि), किसानों पर थोपते रहते हैं! इससे किसान और कृषि लगातार बर्बाद होती जा रही है! अब राष्ट्र हित में किसान को बिचौलियों के शोषण से बचाने के लिए, सरकार को न्यूनतम समर्थन मूल्य कानून बना कर टिकाऊ खेती को प्रोत्साहन देना चाहिए! इससे किसान की आय बढ़ेगी और देश दलहन-तिलहन उत्पादन में आत्मनिर्भर बनेगा!
वीरेंद्र सिंह लाठर, नई दिल्ली</p>