भूख आज भारत की सबसे बड़ी समस्या बनी हुई है। हर साल भुखमरी की व्यापकता नए आंकड़ों के रूप में सबके सामने आ जाती है। दुनिया भर की भुखमरी सूचकांक की हर वर्ष जारी होने वाली सूची मे साल दर साल निरंतर आती हुई गिरावट भी भारत में फैली भूख की बीमारी की कहानी बयां करती है। बढ़ती जनसंख्या हरेक व्यक्ति की, हरेक परिवार की प्राथमिक आवश्यकताओं तक की पूर्ति सही तरीके से नहीं कर पा रही है, जिससे भुखमरी की समस्या गंभीर स्वरूप लेती जा रही है।

कुछ साल पहले तक लोग कड़ी मेहनत के बाद दो वक्त की रोटी सुकून से खा लिया करते थे, अब उनके लिए रोजाना बढ़ती महंगाई ने दो जून की रोटी के लाले पैदा कर दिए हैं। देश की बड़ी आबादी खाने-पीने की महंगी होती हरेक चीज के चलते एक वक्त का खाना अपने नसीब से खा पा रही है तो उन्हें दूसरे वक्त फाके करने पड़ रहे हैं। एक ओर लोगों ने महामारी से राहत पाई तो दूसरी ओर अनेक लोगों की नौकरियां भी हाथों से निकल गई हैं। बिना काम के, बिना पैसों के, देश मे अनेक ऐसे परिवार हो गए हैं, जो भुखमरी की मार झेल रहे हैं।

ऐसी परिस्थितियों में राज्य सरकारों का दायित्व बन जाता है कि भूख और कुपोषण से पीड़ित आबादी को उपयुक्त भोजन मुहैया करवाए। सामुदायिक भोजनालयों-कैंटीनों के जरिए केरल, पश्चिम बंगाल, त्रिपुरा, ओड़ीशा, तेलंगाना, कर्नाटक आदि राज्यों में इस दिशा में रोजाना जो भोजन उपलब्ध कराया जा रहा है वह सराहनीय है। इसी तर्ज पर देश के अन्य उन क्षेत्रों में जहां भुखमरी अधिक है, सस्ता और पौष्टिक भोजन स्थानीय सरकारों को शुरू करने की पहल कर भुखमरी की समस्या के निदान के प्रयासों में तेजी लानी होगी।

आजाद भारत में कुपोषण और भुखमरी से मुक्ति के नाम पर घोषित और पोषित योजनाएं अनेक बार भ्रष्ट तंत्र में आधी-अधूरी अधर में लटक जाती हैं या फिर पूरी तरह से हवा-हवाई हो जाती हैं। समस्या को हल करने के बजाय अक्सर ये योजनाएं खराब क्रियान्वन और अक्षम व्यवस्था की भेंट चढ़ जाया करती हैं, जिसका खामियाजा बहुत बड़े वर्ग को भुगतना होता है। भुखमरी की समस्या को निपटाने के लिए देश में जरूरी धन और संसाधनों की कोई कमी नहीं है। इस समस्या को मिटाने की मंशा बनाने के साथ आर्थिक और राजनीतिक दृष्टिकोण मे बदलाव की सख्त जरूरत है। मजबूत इरादों के साथ किया गया कोई कार्य विफल नहीं होता है तो फिर भुखमरी की समस्या का निपटान भी दृढ़ता के साथ किया जा सकता है।
नरेश कानूनगो, देवास, मप्र