पिछले दो वर्षों में मोदी सरकार ने देश में रोजगार के पर्याप्त अवसर पैदा करने के लिए अनेक कदम उठाए हैं, जैसे मेक इन इंडिया कार्यक्रम, कौशल भारत, स्टार्ट अप और स्टैंड अप इंडिया आदि। पर इनके परिणाम या तो अभी तक आए नहीं हैं या आए तो संतोषजनक नहीं हैं। श्रम ब्यूरो की ताजा रिपोर्ट से पता चलता है कि 2014-15 में अर्थव्यवस्था में रोजगार सृजन पिछले छह वर्षों में सबसे कम था। केवल 1.59 लाख रोजगार पैदा किए गए; इसके अलावा रत्न और आभूषण, हस्तशिल्प, आॅटोमोबाइल क्षेत्र में तो रोजगार सृजन की नकारात्मक वृद्धि दर रही।
इसके पीछे पहला कारण यह है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था के हालात हमारे लिए अनुकूल नहीं हैं। इस पर न तो हमारा नियंत्रण है और न भविष्य में इसमें सुधार के कोई संकेत मिल रहे हैं। इस कारण पिछले कुछ वर्षों में भारत के निर्यात में उल्लेखनीय गिरावट आई है और वैश्विक बाजार में भारतीय उत्पादों की मांग गिरी है।

जहां तक घरेलू मांग का सवाल है, लगभग आधे भारतीय कृषि क्षेत्र में शामिल हैं और इसलिए कृषि घरेलू मांग उत्पन्न करने का एक प्रमुख स्रोत है। लेकिन पिछले दो वर्षों में कमजोर मानसून के कारण कृषि विकास दर काफी निराशाजनक रही और इसलिए घरेलू मांग भी कमजोर रही ।
हालांकि वैश्विक मांग के साथ-साथ घरेलू मांग का गिरना भारत के विकास नीतियों के लक्ष्यों को प्राप्त करने में बाधा बेशक उत्पन्न कर रहा हो, लेकिन सरकार की कुछ सकारात्मक पहल जैसे, मुद्रा बैंक की स्थापना और भौतिक और सामाजिक बुनियादी ढांचे में भारी निवेश, वांछित परिणाम देने के लिए निश्चय ही समय लेंगी। मौसम विभाग द्वारा इस वर्ष के लिए बेहतर मानसून की भविष्यवाणी निश्चित ही हमें आशान्वित करती है। बेहतर मानसून एक ओर कृषि विकास दर को बढ़ाएगा और दूसरी तरफ इससे ग्रामीण आय में भी वृद्धि होगी। इसके साथ सातवें वेतन आयोग की रिपोर्ट लागू होने से घरेलू मांग में निश्चय ही तेजी से वृद्धि होगी। इसलिए हम आगे आने वाले समय में अच्छे दिनों की आस रखते हैं।

’प्रदीप वर्मा, जेएनयू, नई दिल्ली</strong>


तब और अब
कांग्रेस ने घोषणा की है कि मोदी सरकार की मात्र एक उपलब्धि बताने वाले को भी वह पुरस्कार देगी, तो सुनिए। राजीव गांधी कहते थे कि सरकार के पास से जनता के लिए जो एक रुपया चलता है, वह उसके पास तक पहुंचते-पहुंचते केवल पंद्रह पैसे रह जाता है। लेकिन मोदी सरकार ने सीधे लोगों के खातों तक जो सब्सिडी आदि भेजने की व्यवस्था की है, उसमें भेजा गया धन पूरे का पूरा पहुंचता है, एक पैसा कम नहीं होता। इस तरह पिछले दो वर्ष में लगभग दो लाख करोड़ रुपए सरकार की ओर से जनता को दिए गए हैं, कहीं बीच में गोलमाल नहीं।
’अजय मित्तल, खंदक, मेरठ</strong>


संकट की आहट
भारत आज विश्व की सबसे तेजी से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था है लेकिन अगर मराठावाड़ा की तरह अगले दो-तीन साल तक सूखा बना रहे तो भी क्या यह तेजी कायम रहेगी? अगर इसका जवाब हां है तो स्पष्ट है कि देश की अर्थव्यवस्था का किसान, गरीब और मध्य वर्ग से कोई लेना-देना नहीं है। और अगर इसका जवाब ना है तो हमें सोचना होगा कि तब क्या होगा हमारी देश की अर्थव्यवस्था का जब हमारे प्राकृतिक संसाधन जनसंख्या का बोझ उठाने में असमर्थ रहेंगे?

यह प्रश्न अभी प्रासंगिक इसलिए भी है कि नए अध्ययनों के मुताबिक अगर हम अब नहीं चेते तो उत्तर भारत की जीवन रेखा गंगा सूख जाएगी, आज भी इस नदी का अस्तित्व किसी नाले जैसा ही रह गया है। गंगा ही क्यों, अन्य नदियों के साथ भी यही समस्या है। बिना पानी के हम अन्न कैसे उपजाएंगे, जानवर कैसे पालेंगे? भोजन कैसे प्राप्त करेंगे या इस देश की दो-ढाई अरब की जनसंख्या (सन 2050 तक) को भोजन-पानी कैसे देंगे? क्या एक भूखा-प्यासा देश अर्थव्यवस्था की इस तेजी को कायम रख पाएगा?

वास्तव में भविष्य के लिए किसी जनसंख्या नीति के अभाव में हम केवल आंकड़ों की बाजीगरी करके आगामी कुछ वर्षों के लिए ही अपनी अर्थव्यवस्था की तेजी को कायम रख सकते हैं। जनसंख्या का बोझ पड़ते और प्राकृतिक संसाधनों के कमी होते ही हमारी अर्थव्यवस्था ढह जाएगी और हम भी।

’विपुल मिश्र, कुंडा, प्रतापगढ़


बेगुनाहों को सजा
क्या इसे हमारे खुफिया तंत्र और अन्य जांच एजेंसियों की कमी नहीं समझा जाना चाहिए कि वे बिना सबूत निर्दोष लोगों को पकड़ कर बार-बार एक ही गलती दुहरा रहे हैं? मीडिया भी इसमें बराबर का जिम्मेदार है क्योंकि वह केवल शक के आधार पर गिरफ्तार किए गए लोगों को कथित अपराधी या आतंकवादी बना देने में जरा भी समय नहीं लगाता। हाल ही में दिल्ली पुलिस द्वारा की गई ऐसी ही एक कार्रवाई इसका ताजा उदाहरण है।

माना कि जांच एजेंसियों को मजबूरन भी कई बार ऐसी गलतियां करनी पड़ जाती हैं पर उनका क्या जिन्हें बेगुनाह होने के बावजूद सजा काट कर और आतंकी का तमगा लिए अपना शेष जीवन व्यतीत करना पड़ता है? जो मीडिया उन्हें कलंकित करने में समय नहीं गंवाता वही निर्दोष घोषित हो जाने पर उनकी छवि को क्यों नहीं सुधारता?
’मुहम्मद आरिफ, वजीराबाद, दिल्ली


कलम के दुश्मन
पत्रकारों ने जिसके खिलाफ कलम उठाई वह उसका दुश्मन बन गया। यह सच्चाई है जिसे झुठलाना इतना आसान नहीं है। लेकिन वर्दी पहन कर कानून का पालन कराने की कसम खाने वाली पुलिस, लोकतंत्र के इस चौथे स्तंभ पर हमला करने वालों को क्यों नहीं पकड़ पाती है? राजनीतिक दांवपेच आजमा कर कुर्सी पाने वाले राजनेता जब पद और गोपनीयता की शपथ लेते हैं तो संविधान को साक्षी मान कर कुर्सी पर बैठते हैं। लेकिन उसी संविधान की रक्षा करने वाले कलम के सिपाही पर जब हमले होते हैं तो सिर्फ जांच का आश्वासन देकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री क्यों कर देते हैं?

’हितेश कुमार शर्मा, इंदौर</strong>