इसका कारण भारतीय संस्कृति का लचीला स्वभाव था। हमारी पहचान का वैश्वीकृत और पश्चिमीकृत दौर में बने रहना भी इसलिए संभव हो सका, क्योंकि हमारी संस्कृति ठोस रहने के बजाय लचीली रही। उदाहरणार्थ जहां पिछली सदी में दुनियाभर की कई संस्कृतियां बदलते समय से प्रभावित होकर विलुप्त हो गईं, वही भारतीय संस्कृति ऐसी विषम परिस्थिति में भी अटल खड़ी रही। हालांकि भारतीय संस्कृति पर भी इस दौरान कई चीजों ने प्रभाव डाला, लेकिन इतना नहीं की मूल सिद्धांत खो जाए, जैसे बाकी सभ्यताओं के साथ हुआ।

आज भारतीय रीति-रिवाज इसलिए बरकरार हैं कि ये बदलती हवा को अवशोषित कर बदलते दौर में जीने की काबिलियत रखते हैं। अगर हम फिर भी किसी शंका में सदियों से चली आ रही परंपराओं और त्योहारों के जिंदा रहने का कारण तलाशते हैं तो आखिर हमें यही मालूम चलेगा कि यह आयाम जिंदा रहे क्योंकि बदलते समय के साथ चलते रहे, न कि किसी समय में ठहर गए। आज नए तौर-तरीकों के साथ तीज-त्योहारों को मनाया जाता है, क्योंकि यहां कोई बाध्यता नहीं है, बल्कि अपनी इच्छा अनुसार त्योहारों में नए प्रावधान जोड़ने की आजादी है।

भारतीय संस्कृति के कई स्वभाव है, लेकिन उसका समय अनुसार बदलने का यह स्वभाव अपने आप में खास है। आज युगों से चली आ रही परंपराओं में कुछ बदलाव भी इसलिए संभव हो सका है कि भारतीय संस्कृति में लचीलापन है। आज हम जैसा चाहें, वैसा अपने त्योहारों को मना सकते हैं और यही वह बात है जो भारतीय संस्कृति को और खास बनाती है। भारतीय संस्कृति किसी भी ओर से कट्टर नहीं है, वह पूरी तरह नूतन, नवीन तथा अर्वाचीन है, जो बदलते समय के साथ सामंजस्य बनाना बखूबी जानती है।
निखिल रस्तोगी, बरेली, यूपी</p>

कसौटी पर कार्यक्रम

करोड़ों लोग ‘कौन बनेगा करोड़पति’ जैसे खेल में भाग लेने के लिए प्रयासरत होते हैं। यहां भाग्य और कर्म की दौड़ में बेरोजगार रोजगार के लक्ष्य प्राप्त करने की दिशा में आस का पंछी बन जाते हैं। करोड़पति बनने की भागमभाग में एक सवाल यह भी उठता है कि क्या यह प्रतियोगिता सभी के लिए है? ऐसा है तो वे लोग इस प्रतियोगिता में कैसे हिस्सा ले सकते हैं, जो दृष्टि या श्रवण क्षमता से बाधित हैं।

जबकि उनको भी शिक्षा पहचान, इशारों आदि के द्वारा प्राप्त होती है। सवालों की दुनिया में प्रतिभागी की तरह करोड़पति बनने की चाह में क्या वे भी कभी शामिल हो पाएंगे? क्या ‘केबीसी’ उनके लिए भी ऐसे सवाल प्रतियोगिता में शामिल करेंगे, जिनके जवाब इशारों से या पहचान से वे दे सकें, ताकि उन वर्गों को भी अपने आत्मबल को मजबूत बनाने के साथ-साथ अन्य प्रतिभागियों की तरह प्रतियोगिता में भाग लेने का मौका मिल सके।

हालांकि गंभीर बीमारी से पीड़ित मरीजों को ‘केबीसी’ में प्रतिभागी बनाने से बचना चाहिए, क्योंकि ज्यादा खुशी या हारने के दुख से उनके स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ सकता है।
संजय वर्मा, ‘दृष्टि’, मनावर, मप्र