कोई क्या समझता है, क्यों समझता है, यह उसके परिवेश और परवरिश पर निर्भर करता है। अक्सर हम इंसानों को वही बातें बुरी लगती हैं जो हमारे प्रतिकूल होती हैं। इसमें हम चाहते हुए भी खुद को उस किरदार में ढाल नहीं पाते। मन में एक गांठ-सी महसूस होने लगती है उस उलझन को सुलझाने के फेर में, वह गांठ दिनोंदिन पक्की होती जाती है। इन सबकी अभिव्यक्ति क्रोध के एक विस्फोटक के रूप में होती है। जब कोई नहीं चाहते हुए भी अपनी प्राणप्रिय वस्तु को हानि पहुंचाता है तो उसकी तकलीफ की थाह खुद वही आंक पाता है। किसी का यह स्वभाव उसके व्यक्तित्व और परिवेश का परिचायक होता है। उसका क्रोध उसका अभिमान नहीं, उसकी पीड़ा है। वह आवश्यक रूप से परिस्थितियों से लड़ने और खुद को संभालने का प्रयास करता है।
पर शायद एक के बाद एक प्रतिकूल पड़ाव आते-जाते हैं, जो उसे चारों तरफ से घेर कर भंवर-रूपी शिकंजे में जकड़ लेते हैं। उसका अस्तित्व कई टुकड़ों में बिखर जाता है। उसके जीत नहीं पाने का गम उसके हृदय को कचोटता रहता है। खुद को अकेलेपन के गहरे समंदर में डुबो कर वह लहरों से टकराता रहता है। यह अकेलेपन का अनुभव उसे रंक से राजा या राजा से रंक बना देता है। समाज की परंपराओं के सांचे में खुद को ढालते-ढालते कई टुकड़ों में उसका अस्तित्व छिन्न-भिन्न हो गया है। हर रिश्ते को निभाना जरूरत से ज्यादा मजबूरी बन गया है।
खुद को तलाशने और तराशने की आवश्यकता है। खुद को इस परीक्षा रूपी अग्नि में झोंक कर हमें अखंड ज्योति के रूप में उभरने का प्रयास करना चाहिए। सच्ची लगन और भक्ति पुरानी दकियानूसी बाते हैं। अस्तित्व की तलाश कर खुद को किरदारों में ढालना सीखना होगा। कोई परिस्थिति अनुकूल न लगे तो उस पर अपनी प्रतिक्रिया अवश्य देनी होगी, जिससे सामने वाले को उसकी सीमा का पता चल जाए। मगर यह प्रयास क्रोध से नहीं, बल्कि धैर्य से करना होगा।
जीवन हर किसी को उसके हिस्से का सुख तभी प्रदान करता है, जब व्यक्ति खुद कोशिश कर अपने अस्तित्व को निखारता है। यह एक कड़वी सच्चाई है। (प्रियंका श्रीवास्तव, जामिया मिल्लिया, दिल्ली)
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कैसी सीमा
कोचिंग से लौटते वक्त गोविंदपुरा (सांगानेर, जयपुर) रेलवे फाटक पर लोगों की भीड़ देख कर वहां रुका तो देखा कि एक महिला और बच्चे को सांस लेने में बहुत तकलीफ हो रही थी और खून बह रहा था। वह एक सड़क दुर्घटना थी। लोग तीस मिनट पहले ही एंबुलेंस को फोन कर चुके थे।
मुझसे उनका दर्द देखा नहीं जा रहा था। मैं किसी टैक्सी या कार को रुकवाने के लिए सड़क पर आया तो वहां एक पीसीआर वैन आई, जिसमें तीन पुलिसकर्मी थे। मैंने उनसे मदद मांगी तो उन्होंने मुझे कहा कि यह हादसा फाटक के उस पार है, जो हमारी सीमा में नहीं आता। उन्होंने उतर कर उन लोगों देखा तक नहीं कि हादसा ज्यादा बड़ा तो नहीं है। इस पर मैं उनसे बहस करने लगा और उनको मैंने बताया कि हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया है कि सड़क दुर्घटनाओं में थानों की कोई सीमा नहीं होगी। जो पहले पहुंचेगा वही मदद करेगा। पर मेरी बात से उन पर कोई फर्क नहीं पड़ा। उलटे उनकी वही भाषा थी, जिसके बारे में आम जनता खूब जानती है। वे चले गए। मैं सोच रहा हूं कि आम लोगों की सुरक्षा की जिम्मेदारी किनके हाथ में है। (सूरज कुमार बैरवा, जयपुर)
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भ्रष्टाचार के तार
पनामा खुलासा मामले में जो कालाबाजारी हुई है, उससे दुनिया भर में हड़कंप मच गया है। कुछ देशों में सरकारें गिर गर्इं और फिर से चुनाव कराने की मांग उठने लगी है। लेकिन भारत में इस मामले को लेकर इतनी ज्यादा सार्वजनिक चर्चा नहीं हुई है। हमारे देश में कंपनियों की कालाबाजारी पर अंगुलियां उठाने का रिवाज नहीं रहा है। यहां तो कालाबाजारी और भ्रष्टाचार के प्रमुख सूत्रधार राजनेता ही माने जाते हैं। अभी तो लोग समझने में लगे हैं कि इसमें देश-समाज का क्या नुकसान है। कंपनियों के फर्जीवाड़े और टैक्स चोरी से जनता को समझ नहीं आ रहा कि इसमें उनका व्यक्तिगत घाटा क्या है!
इससे पहले हुए नीरा राडिया जैसे मामलों पर भी जनमत नहीं बन पाया। कंपनियों के गलत खेल एक तो जनता तक पहुंचते नहीं हैं और अगर पहुंचते भी हैं तो लोग उतनी आक्रामकता से संज्ञान में नहीं लेते और कुछ दिनों में ही ऐसे मामले दब जाते हैं। हाल में सैकड़ों दवाएं प्रतिबंधित की गर्इं, जिन्हें लोग सालों से ले रहे थे। लेकिन महज सरकार के प्रतिबंध के अलावा यह सवाल कम ही उठा कि इतने सालों में इन दवाओं ने जो खतरा हमारे शरीर में पैदा किया है, उसका इलाज क्या है। अब वक्त आ गया है कि सामान्य जनता सामाजिक मुद्दों के साथ-साथ आर्थिक मुद्दों पर भी हस्तक्षेप करने की परंपरा स्थापित करे। हम इन कंपनियों के कारोबार और कालाबाजारी पर भी सक्रिय निगरानी रखें। (विनय कुमार, आइआइएमसी, दिल्ली)
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हरियाली पर हमला
हरियाली सभी के लिए और इसके लिए भूमि और जल भी उतने ही आवश्यक हैं। अनियंत्रित जनसंख्या विस्फोट से एनसीआर दिल्ली जैसे क्षेत्रों से भूमि बहुत तेजी से गायब हो चुकी है और यह आज भी जारी है। इससे खेत-खलिहान, बाग-बगीचे, चरागाह आदि कभी के लुप्त हो चुके हैं और दुर्भाग्य से उनकी जगह आज गगनचुंबी कंक्रीट के जंगल खड़े हैं, जिससे प्रदूषण, पानी, बीमारियां और अन्य समस्याएं खड़ी हो चुकी हैं। वोट-नोट की राजनीति के तहत निजीकरण को बढ़ावा देने के लिए ही यह सब हो रहा है।
इन कंक्रीट के जंगलों के बिल्डरों से हजारों उपभोक्ता और बैंक आदि को भी अनेक समस्याएं अलग से हैं। नेता, नौकरशाह और इन बिल्डरों का गठजोड़ भी अपने स्वार्थ के लिए वैसा ही है, जैसा इनके साथ ठेकेदारों का रहा है। इन समस्याओं के लिए जनसंख्या, केंद्रीयकरण और निजीकरण की नीति को समान और सख्त कानून से रोकना बहुत जरूरी है। लेकिन शायद वोट और नोट राजनीति ऐसा नहीं होने देगी। (वेद मामूरपुर, नरेला, दिल्ली)

