आए दिन किसी न किसी राज्य में इस तरह की घटनाएं सामने आ रही हैं कि गुरु और शिष्य के बीच विभिन्न प्रकार की दरारें आ रही हैं। राजस्थान की घटना से जुड़ी खबर शांत भी नहीं हुई थी कि एक दलित छात्र के द्वारा अध्यापक के घड़े से पीने का पानी पीने से आग-बबूला हुए अध्यापक ने उसको इतनी बेरहमी से पीटा कि उसकी मौत हो गई कि इसी बीच उत्तर प्रदेश के औरैया जिले में एक और घटना सामने आ गई।
इसमें दलित छात्र का कसूर केवल इतना था कि वह एक शब्द गलत लिख गया। इतने भर के लिए एक शिक्षक अपना संयम और आपा खो बैठा और उसने छात्र की ऐसे पिटाई की कि बाद में उसकी मौत हो गई। आए दिन किसी न किसी राज्य में घट रही इस प्रकार की घटनाएं आखिर आजादी के इतने वर्ष व्यतीत होने के बाद भी कैसे बनी हुई हैं। हमारे अंदर उस प्रकार की मानसिकता, सोच और विचारों की जगह से यही पता चलता है कि हम आज भी अपनी सोच और विचार में परिवर्तन नहीं ला सके। सवाल है कि अगर किसी शिक्षक के भीतर सोचने-समझने का यह स्तर है, तो क्या उसे शिक्षक बने रहने का हक है?
हमें अपने आप को बदलना होगा और इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि सरकार द्वारा अब अध्यापक वर्ग के लिए भी नियम और कानूनों को अमलीजामा पहनाया जा चुका है। किसी भी छात्र की इस तरह से पिटाई करना प्रतिबंधित है। शिक्षा का पाठ पढ़ाने वाला गुरु इतना हिंसात्मक क्यों हो जाता है? उसके भीतर किस तरह की कुंठा काम करती रहती है? कभी बेरहमी से पिटाई के मामले सामने आते हैं तो कभी धूप में खड़ा करने का मामला। इस तरह की घटनाएं किसी कीमत पर रोकी जानी चाहिए।
विजय कुमार धानिया, नई दिल्ली</p>
सफलता की राह
संसार परिवर्तनों की ही देन है। परिवर्तन वही है जो कभी धीरे-धीरे तो कभी अचानक हो जाते हैं। लेकिन जब हम इन परिवर्तनों का आधार देखेंगे तो यह संसार नियत ही रहेगा। यानी परिवर्तन का क्षेत्र वही रहता है, बस उसके अंतर्द्वंद्व में ही एक विजयी होता है एक पराजित। जो विजयी होता है उसमें उसके पूर्व के प्रयासों के सभी गुण विद्यमान होते हैं। बच्चे के वयस्क होने के परिवर्तन में भी उसमे सारे संवेग निहित होते हैं।
जल के भाप बनने में भी जल के सारे गुण निहित होते हैं। हमें अपने कार्यों में अगर सफलता पाना है तो उसे भी परिवर्तन के राह से गुजरना होगा। उस परिवर्तन का संबद्ध क्षेत्र नियत होना चाहिए। अगर भटकाव और क्षेत्र बदलेंगे तो सारी ऊर्जा व्यर्थ हो जाएगी। ऊर्जा के प्रवाह को एक दिशा में करना होगा। संसार की सारी शक्तियों के प्रवाह जब एक दिशा में होते हैं तभी सफलता देते हैं।
हम भोजन को ग्रहण करते हैं तो भोजन का पाचन होने से उत्सर्जन तक सारी प्रक्रिया एक दिशा में ही होती है। ऊर्जा का एक रूप से दूसरे रूप में रूपांतरण भी एक दिशा में ही है। मन का भटकाव होता है और वह सदैव साधनों और साध्यों पर दोषारोपण करता है, लेकिन परिश्रम के विचलन को नहीं देखता। अगर लक्ष्य नियत है तो उसके चोर दरवाजे या जटिल रास्ते नहीं चुनना चाहिए, सीधे मार्ग पर चलना चाहिए।
हो सकता है कुछ दूरी तक कष्ट हो, लेकिन हमारी असफलता निर्धारित नहीं करती। आगे बढ़ना चाहिए। निश्चित ही असफलता सफलता में परिवर्तित हो जाएगी। अगर अन्य रास्तों पर पैर रखेंगे तो फिर वह आधे रास्ते जाकर ही असफलता को प्रबल कर देगी और मन भटक जाएगा और लक्ष्य का भेदक विचलित ही रहेगा।
नीरज कसौधन, कुशीनगर, यूपी</p>