बिहार विधानसभा चुनाव अंतिम पड़ाव पर है। पहले राज्य में चुनाव का दृश्य हिंसक होता था। यह पहली बार है कि चुनाव में किसी प्रकार की हिंसा या खून खराबा नहीं हुआ। लेकिन नेताओं के बोलों ने जिस तरह प्रदेश का मान मर्दन किया है उसे भुलाया नहीं जा सकता। यह जरूरी नहीं कि हम हथियार चलाएं तभी उसे हिंसा कहेंगे। अपने बोलों से किसी को आहत करना भी हिंसा के दायरे में आता है। बिहार के चुनाव में भी इस बार यही हुआ है।

बिहार की जनता कल तक किसी नेता के लिए जान लेने और जान देने पर अमादा रहती थी जिससे चुनाव खून खराबे और हिंसक झड़पों में लिपटे होते थे। लेकिन धीरे-धीरे लोगों ने विकास को अपना मूलमंत्र मान इस तरह की घटनाओं से परहेज कर मतदान प्रक्रिया में भाग लिया। लेकिन इस बार नेता जनता को पीछे धकेल कर स्वयं बदजुबानी और एक-दूसरे को अपमानित करने वाले बयानों से लोकतंत्र को लहूलुहान करने पर आमादा दिख रहे हैं। इस कड़ी में कोई किसी से कम नजर नहीं आता है। कोई छुटभैया नेता ऐसा करे तो उसे लोग नजरअंदाज भी कर दें, लेकिन बड़े दलों केबड़े नेताओं से ऐसी अपेक्षा लोग नहीं करते हैं।

इस मामले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी संयम से काम नहीं लिया। यह गंभीर और निराशाजनक है। मुझे आपत्ति इस बात पर भी है कि देश का प्रधानमंत्री किसी राज्य में दो-चार विधायकोंके लिए एक दिन में कई सभाएं करे, यह उनके पद, उसकी गरिमा और सम्मान के लिए किसी भी लिहाज से उचित नहीं ठहराया जा सकता है। चुनाव आयोग और सभी दलों को इस बारे में भी सोचना होगा कि एक देश के सर्वोच्च पद पर आसीन लोगों का चुनाव प्रचार में भाग लेना कहां तक उचित है?
नेताओं के हिंसक बोलों से चाहे हार-जीत किसी की भी हो, लोकतंत्र तो जरूर हारा हुआ प्रतीत होता है। (अशोक कुमार, तेघड़ा, बेगूसराय)

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गीता के बहाने

पाकिस्तान से गीता का स्वदेश आगमन सुखद है, क्या इसके बाद अब देश अथवा प्रदेश सरकारों का ध्यान उन लाखों बच्चों की तरफ जाएगा जो अनेक वर्षों से गुम हैं? देश में बच्चों के गुम होने की घटनाएं तेजी से बढ़ रही हंै। 2014 की मानवाधिकार रिपोर्ट के अनुसार प्रतिवर्ष तकरीबन 45 हजार बच्चे गायब हो जाते हैं और उनमें से 11 हजार बच्चों का कोई पता नहीं चल पाता है। इनमें से आधे बच्चे देह व्यापार के दलदल में धकेल दिए जाते हैं या उन्हें बंधुआ मजदूरी करने पर विवश किया जाता है।

यूनिसेफ की रिपोर्ट देखें तो इन गुम हुए बच्चों में 20 फीसद बच्चे विरोध करने के कारण मार दिए जाते हैं। पिछले ही दिनों बच्चों से जुड़े मामले पर सुप्रीम कोर्ट ने चेतावनी देते हुए कहा है कि भारत बाल वेश्यावृत्ति के लिए एशिया की मंडी जैसा बनता जा रहा है। बच्चों की गुमशुदगी की सबसे बड़ी वजह गरीबी होती है। गरीब और पिछड़े इलाकों के नागरिक रोजगार के लिए अपना घर छोड़ने के लिए बाध्य होते हैं। जो बच्चे गुम होते हैं, उनमें से ज्यादातर इन्हीं लोगों के होते हैं।

बहरहाल, गीता गुमशुदा बच्चों की मुस्कान बन कर वापस आई है, लेकिन उसके साथ यह सवाल भी आया है कि क्या उन गुमशुदा या बालगृहों में रह रहे अनाथ बच्चों के चेहरे पर भी मुस्कान आएगी जो विषम परिस्थितियों में अपने घर से बिछड़ गए हैं? ऐसे में सरकार और स्वयंसेवी संस्थाओं को सतर्क और प्रभावी कार्य प्रणाली अपनाने की जरूरत है, जिससे मां-बाप या परिवार से उनके जिगर के टुकड़े कभी न बिछड़ पाएं। (पवन मौर्य, बनारस)

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सम्मान के साथ

सम्मान की सच्चे मन से कद्र करने वाले साधनाशील रचनाकार अपने सम्मान में पहनाई गई माला तक को सहेज कर रखते हैं, उसकी बेकद्री नहीं करते। बेकद्री वे करते हैं जिन्होंने पहले से ही कई सारे सम्मान ले लिए हों या फिर सम्मान पाते समय वह प्रचार न मिला हो जो अब उन्हें मिल रहा है या फिर यह भी हो सकता है कि सम्मान-वापसी के पीछे उनका कोई राजनीतिक हित सधता हो। सम्मान आंखों से लगाने वाली चीज होती है, आंखों से गिराने वाली नहीं। सम्मान की कोई अवमानना करेगा तो सम्मान उसकी अवमानना करेगा। (शिबन कृष्ण रैणा, अलवर)

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कैसी आस्था

भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है और यहां सभी को अपना धर्म चुनने और उसका सम्मान करने की पूरी स्वतंत्रता है। लेकिन जब धर्म के प्रति आस्था उन्माद का रूप ले ले तो समस्या खड़ी हो जाती है। लोगों के हक के लिए लड़ने वाले व्यक्ति का सरेआम कत्ल हो जाता है तब हमारी तलवारें नहीं खिंचतीं, तब हमारा खून नहीं खौलता? जब मानव और मानवता ही नहीं रहेंगे तो धर्म का क्या काम? (प्रशांत तिवारी, कस्तूरबा नगर, भोपाल)

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दीये से दिवाली

एक कुम्हार से अगर मिट्टी के दीपक खरीदे जाएं तो यह उसकी मेहनत के प्रति सम्मान होगा। मगर साथ ही उन दीपकों में इस्तेमाल होने वाला सरसों का तेल सामान्य नागरिक की पहुंच में हो तो यह उन सामान्य नागरिकों के साथ-साथ कुम्हारों के प्रति भी सरकार का विशेष योगदान होगा। मजे की बात है कि ‘मिट्टी के दीपक’ के साथ कोई यह नहीं बताता कि दलहन और तिलहन का बाजार में मूल्य क्या है?

अगर एक कदम और आगे बढ़ें तो समझने में देर नहीं लगेगी कि आखिर किसानों से सस्ते में खरीदा गया दलहन और तिलहन कैसे बाजार में आते-आते दस से बीस गुना महंगा हो जाता है। वैसे इस बार दिवाली पर कुम्हार के बने दीपकों को हमारा समर्थन होना चाहिए और घर पर दीपकों की संख्या मोमबत्तियों या फिर बिजली की लड़ियों से ज्यादा भी होनी चाहिए। इन दिनों पर्व-त्योहारों पर पर्यावरण संरक्षण के प्रति सचेत सहने और प्रदूषण रहित दिवाली मनाने पर विशेष जोर दिया जा रहा है। क्यों न हम खुद से इसकी शुरुआत करें! (सत्य देव आर्य, मेरठ)

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