प्रकृति में हम देखते आए हैं कि पेड़ की जिस डाली में अधिक फल होते हैं वह नीचे की ओर झुकी होती है, जबकि सूखा ठूंठ तन कर खड़ा रहता है। यही बात विद्वानों के संबंध में कही जाना चाहिए। पहले यह वृत्ति देखने में मिल जाती थी। तभी तो केदारनाथ अग्रवाल ने कहा है कि- ‘जो आपसे झुक कर मिला होगा/ निश्चित ही उसका कद आपसे बड़ा होगा।’
यह बात अब बिलकुल ही गायब हो गई हो ऐसा तो नहीं है लेकिन पहले से बहुत कम होती जा रही है। पता नहीं क्यों राजनीति में इसका विलोप लगभग होता ही जा रहा है। और कोढ़ में खाज की तरह सत्ताधारी राजनेताओं के व्यवहार में तो यह पर्याप्त से अधिक ही दिखती है। राजनेताओं को चुनाव के समय ही विनम्रता का नाटक करते देखा जाता है। हमारे विदेश राज्य मंत्री वीके सिंह आज भी अपनी अफसराना ठसक और दंभ से उबर नहीं पाए हैं। लगता है, विद्वानों से इन्हें विशेष नफरत है। तभी तो विश्व हिंदी सम्मेलन में लेखकों और साहित्यकारों को न बुलाने का कारण यह बताया था कि ये लोग सम्मेलनों में शराब पीते रहते हैं। जाहिर है, इस बयान पर उनकी थोड़ी-बहुत लानत-मलामत भी हुई थी। फिर कुत्ते वाली बात न्यायालय तक गई, वह तो न्यायालय ने नरमी बरतते हुए उन्हें बख्श दिया। अब जनाब ने फरमाया है कि जो लोग देश में बढ़ती हुई असहिष्णुता से आहत होकर आवाज उठा रहे हैं वे पैसा लेकर यह कर रहे हैं।
ये जनाब, असहिष्णुता से हो रही परेशानी को गैर जरूरी मानते हैं। यह हमारे देश के साहित्य, कला, विज्ञान और फिल्मों की सृजनात्मक विभूतियों का अपमान है। लोकतंत्र में आलोचना और विरोध का जितना स्वागत होगा लोकतंत्र उतना ही मजबूत होगा। आज देश के सत्ताधारी आलोचक को दुश्मन मान रहे हैं। इसीलिए वीके सिंह ने बिना किसी प्रमाण के आरोप जड़ दिया कि बढ़ती हुई असहिष्णुता पर बहस पैसा लेकर कर रहे हैं। इसे मतिभ्रम और कुंठा के सिवाय और क्या कहा जा सकता है!
(श्याम बोहरे, बावड़ियाकलां, भोपाल)
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मानवता पर घात
पेरिस में आतंकवादियों ने पूरी रात गोलीबारी, धमाके किए और सवा सौ से ज्यादा लोगों को मार डाला। आखिर बेकसूर लोगों को मार कर इन्हें क्या मिलता है! अल्लाहु अकबर के नारे लगाते हुए आतंकवादी लोगों पर गोली चलाते हैं। वे कभी जिहाद, कभी धर्म के नाम पर लोगों को अपना शिकार बनाते हैं और इसे अपनी शान समझते हैं। इन लोगों ने जो किया है और जो करते आ रहे हैं वह पूरी मानवता पर घात है। ये लोग अपनी जुबान पर अल्लाह का नाम रखकर चलने वाले शैतान हैं।
इनकी वजह से बेकसूर मुसलमानों में डर फैल जाता है कि उन्हें निशाना बनाया जाएगा जैसा कि 9/11 के हमले के बाद हुआ था। इन संगठनों के खिलाफ किसी एक देश नहीं, पूरे विश्व की जनता और सभी समुदायों के लोगों को मिलकर एकजुटता से खड़े रहने की जरूरत है। हमें बताना होगा कि अभी हमारे अंदर मानवता खत्म नहीं हुई है, हम मिल कर तुम्हारा मुकाबला कर सकते हैं। (अतुल कुमार, दिल्ली विश्वविद्यालय)
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आतंक के विरुद्ध
पिछले दिनों पेरिस में हुई बर्बरता को विश्व के सभी बुद्धिजीवी और इस्लामी विद्वान अधर्म और क्रूरता की संज्ञा दे रहे हैं पर कुछ इस्लामी (वहाबी, चरमपंथी) विद्वानों द्वारा इसकी निंदा ऐसी है जैसे कि आजादी के बाद जिन्ना का पाकिस्तान बना कर पाकिस्तान में सर्वधर्म समभाव की बात कहना! विचित्र तथ्य तो यह है कि अमेरिका महाशक्ति होने पर भी क्यों इन क्रूर समूहों को खत्म नहीं कर पा रहा या यह कोई षड्यंत्र है? गौरतलब है कि अमेरिका ने धर्मनिरपेक्ष इस्लामी देशों (इराक, ईरान आदि) को तबाह कर उन्हें पाकिस्तान की मानिंद आतंकवाद का गढ़ बना दिया? यह तो और भी अजीब है कि सऊदी अरब (जहां से अठारहवीं सदी में वहाबी विचारधारा का उदय हुआ) क्यों अमेरिका के संरक्षण में है? और आज भी वहां लोकतंत्र कायम क्यों नहीं हुआ? यह बात प्रमाणित है कि अरबी हुकूमतों की ओर से भारत और पूरे विश्व में वहाबी संगठनों को धार्मिक प्रचार के जरिए आतंक का प्रसार करने के लिए अरबों डॉलर की मदद दी जाती है।
इस आतंकवाद से निपटने के लिए हम भारतीयों को ही ठोस कदम उठाने होंगे। इसके लिए भारत सरकार को एक ऐसी समिति का गठन करना होगा जो वहाबी मत का गहनतापूर्वक अनुसंधान करे क्योंकि इस मत में अनेक विचारधाराएं हैं जिसमें सलफी मत अत्याधिक कट्टर है और देवबंदी, तब्लीगी जमात आदि क्रमश: कम कट्टर अर्थात कुछ स्वतंत्र विचार रखते हैं। उन कारणों को मालूम कर रोका जाए जिनसे यह अराजकता फैल रही है। इसके लिए मुसलिम युवाओं में सूफी मत की शिक्षा को बढ़ावा देना होगा। इन चरमपंथियों को निरुत्साहित कर सौहार्द की सोच रखने वाले वास्तविक सूफीवादियों को हर क्षेत्र में मौका देकर उत्साहित करना होगा। (उबैद अशरफी चिश्ती, अमुवि, अलीगढ)
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शुचिता का तकाजा
देश-प्रदेश में नीति निर्धारक संस्थाओं के रूप में राज्य विधानसभा और संसद की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। विधान मंडल ही किसी राज्य की प्रगति की रूपरेखा तय करते हैं और उस राज्य के उज्ज्वल भविष्य की इबारत लिखते हैं। ऐसे में इन विधान मंडलों की शुचिता सर्वाधिक आधारभूत तत्त्व है जिसे बनाए रखना परम आवश्यक है। आजादी के बाद से विधान मंडलों की पवित्रता और नैतिक स्तर में लगातार गिरावट देखने को मिलती है। समय-समय पर चुनाव सुधारों के लिए समितियां गठित हुर्इं और विभिन्न स्तरों पर सुधारवादी जन आंदोलन भी चलाए गए। पर आज यदि विधानसभाओं और संसद की स्थिति पर नजर डालें तो पता चलता है कि राजनीति ने सुधार की बजाय बिगाड़ का मार्ग पकड़ लिया है।
हाल ही में संपन्न हुए बिहार विधानसभा चुनाव के चौंकाने वाले आंकड़े सामने आए हैं। इनके अनुसार नवनिर्वाचित बिहार विधानसभा के आधे से अधिक विधायक दागी पृष्ठभूमि के हैं जिनमें से कई पर तो गंभीर आरोप हैं। समय रहते यदि राजनीति के अपराधीकरण की इस प्रवृत्ति पर अंकुश नहीं लगाया जा सका तो स्वतंत्रता सेनानियों के अमूल्य बलिदान और स्वतंत्र भारत के उज्जवल भविष्य के उनके सपनों को साकार होने से पूर्व ही हम बिखरता हुआ देखने को मजबूर हो जाएंगे। (जितेंद्र सिंह राठौड़, गिलांकोर)