जिनके चेहरे पर हल्की-सी उदासी और आंखों में काम मिलने की आशा दिखती है। दरअसल वे ‘मजदूर’ हैं। बड़ी-बड़ी इमारतें, बांध, पुलिया और सड़कों, सभी को मजदूर अपने खून और पसीने से सींचता है। अगर कोई सही मायने में देश का निर्माणकर्ता है तो वह मजदूर है। इतनी अहम भूमिकानिभाने वाले मजदूरों के हालात पूरे विश्व में कहीं भी ठीक नहीं हैं और उनकी समस्याएं लगातार बढ़ रही हैं जिस पर विश्व श्रम संगठन सैकड़ों बार चिंता जाहिर कर चुका है। भारत में पैंतालीस करोड़ से ज्यादा मजदूर हैं और इनकी संख्या और समस्याएं निरंतर बढ़ रही हैं। 1960 के बाद देश में कृषि और मजदूर वर्ग की दशा और दिशा कुछ हद तक ठीक थी लेकिन 1991 में मजदूर को मालिक बनाने के नाम पर आर्थिक उदारीकरण की नीतियां अपनाई गर्इं और अब किसान अपनी ही जमीन में बन रही गगनचुंबी इमारतों में मजदूरी करने को मजबूर हैं।
देश में हर साल दस करोड़ लोग काम की तलाश में अपना घर छोड़ देते हैं जिनमें से करीब साढ़े तीन करोड़ लोग शहरों में आते हैं। गांवों से आने वाले ये लोग पेट भरने के लिए मजदूरी ही करते होंगे और शहरों पर बढ़ते आबादी के दबाव के कारण उनके चारों ओर झुग्गी-झोपड़ियों का एक नया शहर बस जाता है जहां पीने के पानी, शौचालय जैसी सामान्य सुविधाएं भी नहीं होती हैं। श्रमिकों की समस्याओं को दूर करने के लिए योजनाएं तो खूब बनी हैं; शिक्षा, भोजन और काम का अधिकार सबको प्राप्त है लेकिन फिर भी क्यों आज र्इंट भट्टे पर बच्चों सहित एक परिवार बंधुआ मजदूर है, क्यों बिहार का ‘छोटू’ होटलों और ढाबों में बर्तन धोता है? अगर एक भी सरकारी योजना को धरातल पर ईमानदारी से लागू कर दिया जाए तो बहुत-सी समस्याएं हल हो सकती हैं। शिक्षा में निजीकरण की नीतियों के कारण हम हर साल लाखों की संख्या में अकुशल मजदूर पैदा कर रहे हैं जिनमें इंजीनियरिंग छात्रों के हालात ज्यादा खराब हैं। देश की शिक्षा और रोजगार नीतियों का अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि चपरासी के पद के लिए एमबीए कर चुका बेरोजगार छात्र भी आवेदन करने को मजबूर है। काम की तलाश के लिए मजदूरों की जितनी भीड़ चौराहों पर देखने को मिलती है उससे कई गुना ज्यादा भीड़ सरकारी नौकरी की तैयारी कराने वाले कोचिंग संस्थानों के सामने दिखाई पड़ती है जो भविष्य के पढ़े-लिखे मजदूर हो सकते हैं।
ये समस्याएं आज अचानक उत्पन्न नहीं हुई हैं बल्कि हमारी सरकारों की घटिया नीतियों और उनके गलत निर्णयों के कारण पैदा हुई हैं जो आज विकराल रूप धारण कर चुकी हैं। लेकिन आज भी हम इनसे निपटने के लिए कोई खास कदम नहीं उठा पा रहे हैं। पहले हमें कहा गया कि हम मजदूर को मालिक बनाएंगे लेकिन अब कहा जा रहा है कि हम मालिक को ट्रेनिंग देकर मजदूर बनाएंगे और ये असमंजस की स्थितियां पैदा होती रहेंगी क्योंकि संसद की वातानुकूलित कैंटीन में दस रुपए में भरपेट भोजन करके हमारे नेता योजना बनाते हैं और कहते हैं कि देश में चौबीस रुपए कमाने वाला गरीब नहीं है। इससे ज्यादा गरीब या गरीबी का मजाक क्या हो सकता है! (सूरज कुमार बैरवा, सीतापुरा, जयपुर)
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कलम के विरुद्ध
बिहार के सीवान में पत्रकार की गोली मार कर हत्या कर दी गई, उत्तर प्रदेश के बरेली में पत्रकार को जिंदा जला दिया था। कानपुर में कुछ दिन पहले सट्टा संचालकों ने पत्रकार को गोली मार दी थी। उमरिया में पत्रकार चंद्रिका राय को परिवार समेत मौत के घाट उतार दिया गया था। बालाघाट में पत्रकार को जिंदा जला दिया गया। ये वे तमाम घटनाएं हैं जो लोकतंत्र के चौथे स्तंभ का मनोबल गिराने के लिए काफी हैं। सच लिखने की कीमत अगर अपनी या परिवार की जान देकर चुकाई जाए तो कौन पत्रकारिता के पेशे को अपनाएगा? कौन सच सामने लाने का बीड़ा उठाएगा? कौन राजनेताओं या नौकरशाहों को कलम के बूते आम आदमी की बात सुनने पर मजबूर करेगा? बढ़ते अपराधों के खिलाफ कौन जनचेतना जगाएगा? (हितेश कुमार शर्मा, इंदौर)
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जीविका पर पानी
पिछले दिनों राजनीति की भारी-भरकम खबरों के बीच एक छोटी-सी खबर ने ध्यान खींचा। उत्तर बंगाल के जलपाईगुड़ी में एक और चाय बागान में ताला लग गया जिससे सात सौ मजदूर बेरोजगार हो गए। ये सब दिहाड़ी मजदूर हैं जो पेट की आग बुझाने के लिए रोज कुआं खोदते हैं। तालाबंदी का कारण है चाय बागान मालिक और मजदूरों के बीच एक मानवीय मुद्दे पर विवाद। मालिक ने बागानों में घूम-घूम कर पानी पिला कर जीविका कमाने वालों पर रोक लगा दी और बदले में बोतलबंद पानी की व्यवस्था कर दी, लिहाजा उनके स्वधर्मी और श्रमधर्मी बागान मजदूरों ने काम बंद कर दिया। बंगाल के तमाम राजनीतिक दल यदि बंग विजय के अपने अभियान से अब फुर्सत पा चुके हों तो इस छोटे-से दिखने वाले मुद्दे पर गौर करें। मां-माटी-मानुष की लड़ाई वाले बंगाल में यह मुद्दा मानुष से सीधे तौर पर जुड़ता है! (अंकित दूबे, नई दिल्ली)
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मोबाइल के गुलाम
स्मार्टफोन और उस पर नाचती बच्चों की अंगुलियां हमारा सीना गर्व से फुला देती हैं, ‘मेरा बच्चा ये वाला गेम खेलता है …उसका उच्चतम स्कोर इतना है…आदि-आदि’। धीरे-धीरे हमारे भीतर मौजूद ये बीमारियां बच्चों की तार्किकता समाप्त कर उन्हें ‘डिजिटल’ बना देती हैं। उन्हें मैदान में फुटबॉल को ठोकर मारने से ज्यादा यह पता होता है कि किस ‘टच’ से बॉल कहां ‘मूव’ करेगी।
दूसरी समस्या है चारों तरफ भू-माफिया का बढ़ता शिकंजा जिसके लिए हमारी सरकार /नगरपालिका / ग्राम पंचायत भी बहुत हद तक जिम्मेदार हैं। उन्हें आर्थिक लाभ के सामने खेल का मैदान छोड़ने की चिंता नहीं है। कुकुरमुत्ते की भांति उगते निजी विद्यालय भी मैदान उपलब्ध नहीं करा पाते तो बच्चे क्या बड़े-बड़े स्टेडियम में खेलना सीखेंगे? मजबूरन मोबाइल ही उनका प्रथम और अंतिम सहारा है। हम अगर आज भी सचेत नहीं हुए तो वह दिन दूर नहीं जब बच्चे मोबाइल और टीवी की आभासी दुनिया के गुलाम बन कर रह जाएंगे। (शशि प्रभा, वायु सेना स्टेशन, आगरा)