बराक ओबामा को गणतंत्र दिवस समारोह में मुख्य अतिथि के तौर पर बुलाने को केंद्र सरकार और भाजपा अपनी बड़ी उपलब्धि के तौर पर देख ही नहीं रही थीं, विपक्ष और देशवासियों को दिखा भी रही थीं। अमेरिका दुनिया का सबसे ताकतवर, धनवान और रसूखदार देश माना जाता है, इसलिए उनके स्वागत के लिए प्रधानमंत्री मोदी और देश की जनता में भी बहुत उत्साह दिखा।
प्रोटोकोल तोड़ते हुए मोदी स्वयं उनकी अगवानी के लिए हवाई अड्डे पर मौजूद थे और अगले दो-तीन दिनों तक पूरा देश मोदी-ओबामा की जुगलबंदी देखता ही रह गया। लगा, मानो मोदी के दीवाने हुए ओबामा उन्हीं के रंग में रंग गए हों। लेकिन जाते-जाते वे भारत में धार्मिक असहिष्णुता के संबंध में देशवासियों को संदेश दे गए।
मेरे विचार से अगर प्रधानमंत्री मोदी ने ओबामा को अपने घनिष्ठ मित्र के रूप में दिखाया तो उनकी कही बात का बुरा नहीं मानना चाहिए। हो सकता है मोदी से सीख लेते हुए ओबामा भी ‘मन की बात’ कहना चाह रहे हों। जो बात कही गई उसमें क्या गलत है? भारतीय संस्कृति प्राचीनकाल से धार्मिक सहिष्णुता को आत्मसात करती आई है और भारत के संविधान में इसे सुनिश्चित किया गया है। लेकिन पिछले सालों के दौरान सहिष्णुता की भावना में कमी होती दिख रही है और कट्टरता बढ़ रही है। मशहूर कवि और पटकथा लेखक जावेद अख्तर ने पिछले साल अल्मोड़ा में एक स्मृति व्याख्यान में भारत का भगवाकरण करने में लगे लोगों पर तीखी टिप्पणी करते हुए कहा कि हमारी परंपरा की सबसे बड़ी खूबी विचारों में खुलापन और व्यापकता रही है, कि केवल हम सही नहीं हैं, बल्कि यह भी सही हो सकता है और वह भी सही हो सकता है। लेकिन कुछ ताकतें इस पर गर्व करने के बजाय बुराइयों को अपना रही हैं कि हम भी वैसे ही संकीर्ण और कट्टर बनेंगे।
अतिथि और मित्र में फर्क होता है। अतिथि के साथ हमारा संवाद औपचारिक बातचीत की परिधि तक सीमित रहता है, लेकिन मित्र से मन की हर बात कर सकते हैं और घरेलू अच्छाइयों-बुराइयों, समस्याओं पर बात करते हुए उसकी सलाह सुनी जाती है। यदि मित्र बिन मांगी सलाह दे तो उसका बुरा भी नहीं मानते। सच्चा मित्र तो कड़वी दवा के समान होना चाहिए। उनकी बात में खोट है या उन्होंने सही कहा है, यह मंथन करें।
कमल कुमार जोशी, अल्मोड़ा
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