पेशावर में सैनिक स्कूल के बच्चों और किशोरों पर हुआ मर्मांतक हमला केवल पाकिस्तान नहीं, पूरे विश्व के लिए एक खुला सबक है। सबक यह कि आतंकवाद को पैदा करने वाली हमारी उपभोगवादी व्यवस्था, इसकी विषमतापूर्ण आर्थिकी, हिंसा आधारित शासन और समाज व्यवस्था आतंकवाद को किस सीमा तक प्रबल और पैशाचिक बना सकती है। सवाल उठता है कि बंदूकें हाथ में लेने वाले ये आतंकी क्यों पैदा हो रहे हैं? उनके दिल इतने निर्मम और कठोर क्यों हो रहे हैं? ऐसे हत्यारों का साथ देने के लिए नए नौजवान क्यों जुड़ रहे हैं? क्या कहीं हमारी व्यवस्था ने भी उन नौजवानों के साथ अन्याय किया है? 150 मासूम बच्चों की याद में सारी दुनिया के राष्ट्रों और आम समाज को आत्ममंथन करना चाहिए कि ऐसी व्यवस्था की आर्थिक, प्रशासनिक और सामाजिक नीतियों को सबके लिए समान न्याय और लाभ देने वाली कैसे बनाया जाए। समाज के संसाधनों का समान वितरण कैसे हो कि दिल न जलें, हाथों में रोजगार हो न कि बंदूकें हों।
इस घटना से एक दूसरा तथ्य उजागर होता है कि हिंसा का निराकरण हिंसा से नहीं होता। क्रोध और निर्ममता का प्रतिकार क्रोध और निर्ममता नहीं हो सकता। मौत के बदले मौत देकर कोई शांति नहीं लाई जा सकती। जिन क्रूर और हृदयहीन आतंकियों ने मासूम बच्चों पर अपने मारक हथियार चलाए, उन्हें फांसी दें क्योंकि न्याय व्यवस्था के हाथों में तत्काल कुछ अन्य नहीं है। लेकिन गहराई से सोचने की जरूरत है कि इस हिंसा की भी प्रतिहिंसा नहीं होगी क्या? इसका भी बदला नहीं लिया जाएगा क्या? यह अक्षम्य घटना हिंसा-प्रतिहिंसा का एक जीता-जागता नमूना है। तालिबान पाकिस्तान के उत्तरी वजीरिस्तान क्षेत्र में अपने आंतरिक आतंकवाद से निपटने के लिए हिंसारत थे। पिछले कुछ वर्षों से पाकिस्तान के सुरक्षा बल वहां उन्हें नेस्तनाबूद करने में लगे थे। पाकिस्तान सरकार ने अपनी वायुसेना का भी उपयोग उन जिहादियों को मारने के लिए किया था। क्या वायु सेना के हमलों में बच्चे, महिलाएं और परिवारजन नहीं मरे होंगे? उस हिंसा का जवाब प्रतिहिंसा से दिया गया और वह प्रतिहिंसा इतनी मर्मांतक थी कि उसने दुनिया भर के दिलों को दहला दिया। अब भी हिंसा के जरिए ही उसका हल करना और अपनी नीतियों, देश के भीतरी और बाहरी रिश्तों और परिदृश्यों को बदलने की ओर ध्यान नहीं देना, यह किन परिणामों की ओर संकेत करते हैं?
यही सबक हमारे देश को भी सीखना है। हम अपने आंतरिक आतंकवाद से निपटने के कौन से तरीके अपना रहे हैं? वह भी बंदूक के सामने बंदूक ही तो है न? हमने कभी यह सोचने की कोशिश नहीं की कि आम आदमी प्रतिदिन बेरोजगारी, रोजमर्रा के जीवन में चल रहे भ्रष्टाचार और घोर विषमता के अपमान को झेल रहा है। लोगों के दिल जल रहे हैं, पर हमारी सरकारी नीतियां पूंजीपतियों और श्रमाधारित वर्गोंं के बीच खड़ी की गई विषमता की खाई को और भी चौड़ी करने वाली अपनी अंधी दौड़ को बदलने और उस पर विचार करने को भी तैयार नहीं दिखतीं।
आर्थिक वृद्धि आधारित नीति ने पिछले छह दशकों में गरीबी बढ़ाई है। बेरोजगारी घटाने में इस नीति से कोई मदद नहीं मिली है, बल्कि देश की जनसंख्या को स्पष्टत: दो देशों में बांट दिया है। एक, जिसका विकास दुनिया देखती है और दूसरा, जिसने अभी भी अपने आजाद होने का स्वाद नहीं चखा। भारत-पाकिस्तान और दुनिया के अन्य सभी देशों को यदि अपने बच्चों को ऐसी दुर्दांत घटना से बचाना है तो अपनी आर्थिकी को अमूलचूल बदलना होगा। शिक्षा, रोजगार, आजीविका के समान अवसर देने के साथ नागरिक समाज को भी सोचना होगा कि वे कैसी आजीविका चाहते हैं? नागरिक अपनी आजीविका के लिए दूसरे का हिस्सा छीनते रहेंगे और कई पश्चिमी देशों के नागरिकों की तरह दूसरों को लड़ाने के लिए बनाए गए हथियारों की रोटी खाते रहेंगे तो मासूम बच्चों पर गोलियां बरसा कर अकाल मृत्यु के मुंह में धकेलने वाली घटनाएं घटती रहेंगी। माताएं रोएंगी, पिता गमगीन होंगे और शायद घर में कोई किशोर कहने लगेगा, ‘मैं इसका बदला लूंगा।’ इस तरह एक नई बंदूकधारी पीढ़ी खड़ी होगी। तब हिंसा और प्रतिहिंसा का सिलसिला चलता रहेगा!
राधा भट्ट, गांधी शांति प्रतिष्ठान, दिल्ली
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