कल हम निर्भया कांड की छठी बरसी पर उस बेटी को याद करेंगे जो दिल्ली की सड़कों पर बेमौत मारी गई थी। यह अफसोसनाक है कि अभी तक उसके गुनहगारों को सजा नहीं मिल पाई है। यह दिन हमारे लिए एक बार फिर पीछे मुड़ कर देखने का होगा। उस वीभत्स, भयानक और घिनौने अपराध ने देश को इतना झकझोर दिया था कि महीनों तक अखबारों और टीवी पर वही छाया रहा था। कानून तो तब भी हमारे पास थे, लेकिन उस कांड के बाद हमने अलग से कानून बनाने की कवायद भी की थी। कुछ ऐसी संजीदगी जताई गई थी जैसे आगे से महिलाओं के खिलाफ जोर-जुल्म पर रोक लग जाएगी। लेकिन रोज खबरें मिलती हैं कि महिलाओं के प्रति अपराध और अत्याचार की हालत आज भी वैसी ही है।
अकेले राजधानी दिल्ली में बलात्कार के मामलों में 132 फीसद की बढ़ोतरी दर्ज की गई है। देश का कोई राज्य ऐसा नहीं है जहां बलात्कार के मामलों में कमी दर्ज की गई हो। यह कैसी बेबसी है, जिसमें खुद हमारा दम घुट रहा है! हम कितने असहाय हैं कि अपनी बेटियों को सुरक्षा दे पाने में नाकाम साबित हो रहे हैं। न जाने कितनी बार हम सड़कों पर उतरे, अपने गुस्से को विरोध और नारों की शक्ल में कानून और सरकार के सामने रखा। हम उस दुनिया को हमेशा-हमेशा के लिए बदल देना चाहते हैं जो हमारी बेटियों को सुकून और हिफाजत भरी जिंदगी दे पाने में विफल है।
आज महिलाएं खुल कर बोल भी रही हैं, ‘मीटू’ जैसे अभियान चलाकर बड़े-बड़े चेहरों का नकाब उतारने का काम कर रही हैं। यकीनन इससे उन लोगों, जो अपनी हैसियत के बूते अपराध करने के बावजूद मुस्कुरा कर चलते थे, के माथे पर चिंता की लकीरें साफ दिखाई पड़ती हैं। लेकिन आज महिलाओं के सामने इंसाफ पाने की भी बड़ी चुनौती है। यह सवाल मौजूं इसलिए भी है कि जिन बेटियों ने समाज के दायरों को लांघ कर अदालत के दरवाजे तक पहुंचने की हिम्मत दिखाई है, वे अपनी लड़ाई केवल निचले पायदान तक पहुंचा पाई हैं। इंसाफ के नाम पर उन्हें गवाह और सबूत और समाज से छुपकर जिंदगी बितानी पड़ रही है। न्याय की चौखट पर उनके सामने अभी इतनी लंबी चढ़ाई बाकी है जिसे नापने में शायद उनकी उम्र ही निकल जाएगी।
आज अपराध के हर पहलू पर अध्ययन के लिए हमारे पास अपराधशास्त्र उपलब्ध है। पर दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि इसके अध्ययन-अध्यापन की सुचारु व्यवस्था हम नहीं कर पाए। शायद इसलिए नहीं कर पाए कि हम यही मानते रहे कि अपराध से निपटने के लिए न्याय प्रणाली यानी पुलिस, अदालत और जेल के अलावा कोई और उपाय है ही नहीं। बढ़ते अपराध को कम करने का एक रास्ता समाज भी हो सकता है लेकिन यह इस बात पर निर्भर करता है कि समाज का विवेक किस बुनियाद पर तैयार किया गया है और उसकी दृष्टि में कितनी संवेदनशीलता है।
रोहित यादव, महर्षि दयानंद विवि, रोहतक
नापाक इरादे: जब दुनिया मुंबई हमले का स्मरण कर रही थी तब करतारपुर कॉरिडोर के लिए आयोजित शिलान्यास समारोह में पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने पाकिस्तान को उसकी करतूतों के लिए खरी-खरी सुनाने में संकोच नहीं किया। उन्होंने पाकिस्तानी सेनाध्यक्ष को लताड़ लगाकर एक तरह से यही स्पष्ट किया कि इस कॉरिडोर को लेकर पाकिस्तान की ओर से दिखाई जा रही सदाशयता के बाद भी उससे सावधान रहने की जरूरत है। पाकिस्तान करतारपुर कॉरिडोर को लेकर अपनी नेकी का जो प्रदर्शन कर रहा है, उसके पीछे उसकी कोई कुटिल सोच भी हो सकती है। उम्मीद है कि पाकिस्तान की इस कुटिल सोच के बाबत केंद्र सरकार वैसे ही सतर्क होगी, जैसे पंजाब सरकार दिख रही है। निस्संदेह यह कॉरिडोर पाकिस्तान से संबंध सुधार की राह बना सकता है, लेकिन तभी जब पाक नेक इरादों का परिचय सचमुच दे। अभी तो वह दोस्ती के नाम पर दगा देने में ही लगा हुआ है।
हेमंत कुमार, ग्राम/पोस्ट-गोराडीह, भागलपुर
फैसले का सम्मान: सोशल मीडिया ने राजनीति का सामाजीकरण करने में अभूतपूर्व सफलता पाई है। पिछले दिनों पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव मेंं सोशल मीडिया की खूब धूम रही। नतीजे आ गए मगर वह अब भी उसी मुस्तैदी से सक्रिय है। चुनावोपरांत विश्लेषणों की आड़ में पार्टियों के राजनीतिक समर्थकों द्वारा निर्दोष मतदाताओं पर बेतहाशा हमले बदस्तूर जारी हैं। निश्चित रूप से संविधान ने हमें किसी राजनीतिक दल या व्यक्ति को अपनी मर्जी से चुनने या न चुनने का अधिकार दिया है लेकिन यह हक तो किसी को नहीं कि मतदाताओं की पसंद-नापसंद पर उंगली उठाए। उससे आगे ज्यादती तो यह कि सोशल मीडिया के खुले विचार मंच पर अनाम मतदाताओं को असंसदीय और अपमानजनक शब्दों से अलंकृत किया जाए। बेशक अच्छे कामों और कड़ी मेहनत के बावजूद मिली चुनावी हार किसी सामान्य व्यक्ति को विचलित कर जाती है मगर इस बहाने लगभग 40 फीसद मतदाताओं के चरित्रहनन की कोई वजह नहीं हो सकती। ऐसे सभी प्रयासों और संदेशों पर तुरंत अंकुश लगना चाहिए। मतदाताओं के फैसले का हर हालत में सम्मान किया जाना चाहिए।
एमके मिश्रा, रातू, रांची, झारखंड</strong>
दूषित जल: धरती के किसी निवासी को यह बताने की जरूरत नहीं कि जल ही जीवन है लेकिन उत्तर प्रदेश की सरकार और जनता को सचेत करने के लिए आपका संपादकीय ‘जल में जहर’ (13 दिसंबर ) बहुत सामायिक है। दरअसल, हमारे सभी नेता और आर्थिक दृष्टि से संपन्न लोग खरीदा हुआ अथवा आधुनिक घरेलू शोधन संयंत्रों से कुछ हद तक साफ किया हुआ जल पीते हैं। इसलिए उन्हें जल में बढ़ते हुए जहर से कोई परेशानी नहीं होती है।
बहरहाल, जो जनता इन नेताओं को चुनती है और जिसकी वजह से चंद लोग अमीर बनते हैं, उसके स्वास्थ्य को जलीय प्रदूषण तेजी से चौपट कर रहा है। मंदिर मुद्दे से भी यह मुद्दा कहीं अधिक बड़ा है क्योंकि ऐसे जहरीले जल से तो पूजा-अर्चना करना भी उचित नहीं है। अगर हम धर्म में यकीन करते हैं तो सबसे पहले हमें जल-थल और नभ को नुकसान पहुंचाने वाले इस प्रदूषण रूपी दानव से निपटना होगा। हम अपने संसाधनों का उपयोग लोगों की प्रदूषण से रक्षा के लिए करें। उम्मीद है कि उत्तर प्रदेश सरकार इस दिशा में सक्रियता से कदम उठाएगी और जल में बढ़ते हुए जहर पर अंकुश लगाएगी।
सुभाष चंद्र लखेड़ा, द्वारका, नई दिल्ली
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