देश में लोकतंत्र का चुनावी उत्सव जारी है। सियासी प्रतियोगिताओं का समा बंधा हुआ है। मतदाता अथवा जागरूक देशवासी इसमें शामिल होने के लिए दिल से तैयार हैं, लेकिन बयान बहादुर नेताओं का बड़बोलापन लोकतंत्र की मर्यादा पर कुठाराघात कर रहा है। कौन नेता सस्ती लोकप्रियता के लिए कब क्या कह देगा, इसका कोई दायरा नहीं बचा है। सवाल गांव-गलियारे तक से सवाल उठ रहे हैं कि आखिर जनसेवा का बाग लगाने वाले इन बयान बहादुरों की जबान पर लगाम कब लगाई जाएगी। कई नामी गिरामी नेताओं ने जनसेवा से नहीं बल्कि बेलगाम जबान के जरिए सस्ती सुर्खियां बटोरी हैं। वे इन सुर्खियों पर भले ही गर्व करें लेकिन एक आम नागरिक तो शर्मसार ही होता है। राजस्थान के बाड़मेर में एक पूर्व केंद्रीय मंत्री ने चुनाव प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री के पिता को लेकर आपत्तिजनक बयान दिया। एक मुख्यमंत्री ने अली और बजरंगबली बंटवारा कर लिया।’ वैसे यह परंपरा कोई नई नहीं है। तमाम बड़े-छोटे नेता चुनावों के दौरान अजीबोगरीब बयान देते रहे हैं।
सवाल है कि हमारे नेता कुर्सी की लड़ाई में इतने अमर्यादित क्यों हो जाते हैं! क्या आम नागरिक के लिए बातचीत व व्यवहार का एक मर्यादित दायरा है और नेता होने के नाते ये सियासत दान इसकी परिधि से बाहर हैं? किसी पर आपत्तिजनक टिप्पणी या अपमानजनक आक्षेप करना स्वस्थ राजनीति नहीं है। गौरतलब है कि आजादी की लड़ाई से लेकर आजादी मिलने के कुछ वर्ष बाद तक हमारे नेता अपने विचार और अपनी बातचीत से पहचाने जाते थे। आज कई नेता या तो बाहुबली होकर पहचाने जाते हैं या फिर भी अपने सामने वाले नेता पर इस तरह निचले दरजे का जबानी हमला करते हैं जैसे वे किसी पार्टी के जिम्मेदार प्रतिनिधि ही न हों। आम भारतीयों को नेताओं के इस रवैये पर शर्म आती है। युवा मन भी सोचता है कि उसका भविष्य कैसे लोगों के हाथ में है, जिन्हें सलीके से अपनी बात तक रखना नहीं आता!
लोकतंत्र के चुनावी मेले में विचार और स्वस्थ्य राजनीतिक प्रतिस्पर्धा का अभाव दिखता है। इसका स्थान ले लिया है निहित स्वार्थ के लिए किसी भी हद तक नीचे जाने की मानसिकता ने। नेताओं को आत्ममंथन करना ही होगा। यदि बयान बहादुर न सुधरे तो वह दिन भी जल्दी आ जाएगा जब नेता भरी सभा में अपमानित होने लगेंगे। ऐसे बयानों से देश व समाज का कुछ भला नहीं होता। यह जरूर होता है कि बार-बार धर्म, वर्ग, भाषा भेद के भंवर में फंस कर अंतत: लोकतंत्र ही कलंकित होता है। इसके लिए सभी दलों के वरिष्ठ नेताओं को चेतना होगा। चुनाव आयोग को भी सख्त होना होगा, अन्यथा लोकतंत्र की आत्मा को चोट पहुंचा कर कुछ कथित नेता अपनी राजनीतिक रोटियां सेकते रहेंगे।
हर्ष गंगवार, फरुर्खाबाद
नदियों की सुध: कानपुर में एशिया के सबसे बड़े गंदे नाले सीसामऊ को गंगा में गिरने से रोकने के लिए उत्तर प्रदेश जल निगम, नमामि गंगे परियोजना प्रबंधन, उत्तर प्रदेश सरकार और केंद्र सरकार बधाई के पात्र हैं। दृढ़ इच्छाशक्ति के अभाव और भ्रष्टाचार से ग्रस्त यह योजना 1985 में बनी थी लेकिन 30 वर्ष के लंबे समय बाद 2016 में इसने नाले को गंगा में गिरने से रोकने के लिए गंभीरता से कार्यरूप लेना आरंभ किया। दो वर्ष के अथक प्रयासों से अब जाकर यह फलीभूत हुई है। गंगा के अलावा देश की तमाम नदियों को गंदा होने बचाया जा सकता है बशर्ते योजनाओं पर कार्य करने की तीव्र इच्छा हो।
दिल्ली में यमुना में गिर रहे गंदे नालों को भी सीसामऊ नाले की तर्ज पर नियंत्रित करके मृतप्राय: यमुना को पुनर्जीवित किया जा सकता है। सभी राज्यों को सब्सिडियां वितरित करने का श्रेय लेने की प्रतियोगिता जीतने का आसान-सा कार्य करने की बजाय प्राणदायिनी नदियों को बचाने का अधिक कठिन कार्य करना राज्य और राष्ट्र निर्माण के लिए ज्यादा जरूरी है।
सतप्रकाश सनोठिया, रोहिणी, नई दिल्ली</strong>
इस चुनाव में: यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि हमारे यहां चुनावों में भुखमरी, शिक्षा, स्वास्थ्य, गरीबी, बेरोजगारी, पर्यावरणीय संकट आदि के बजाय मंदिर या प्रतिमाएं प्राथमिक होते जा रहे हैं और बहस का मुद्दा भी बन रहे हैं। बेरोजगारी पिछले बीस वर्षों के उच्चतम स्तर पर है। सरकार आज तक द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग की सिफारिश के अनुसार जीडीपी का छह फीसद शिक्षा और स्वास्थ्य पर खर्च नहीं कर पाई है। परिणामस्वरूप विश्व के सौ प्रमुख विश्वविद्यालयों में भारत का एक भी शिक्षण संस्थान नहीं है। यदि बेरोजगार युवा वर्ग को सरकार शिक्षा व स्वास्थ्य सुविधाओं के माध्यम से बेहतर मानव संसाधन में तब्दील नहीं कर पाती है तो यही वर्ग देश पर बोझ बनेगा।
स्वास्थ्य और पर्यावरणीय मुद्दों की बात करें तो इनकी भयावह स्थिति का पता हाल ही में आई विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट से चलता है जिसमें बताया गया है कि वायु प्रदूषण और उससे होने वाली बीमारियों से बच्चों की मौतों के मामले में भारत का स्थान पहला है। साथ ही यदि भुखमरी की बात करें तो 119 देशों की सूची में भारत सौवें स्थान पर है। राजनीतिक दल समाज का प्रतिबिंब भी होते हैं। इसलिए समाज को तय करना है कि वोट देने का आधार भुखमरी, शिक्षा, स्वास्थ्य, बेरोजगारी हों या मंदिर और प्रतिमाएं!
मिलनजीत बांगा, अमरोहा, उत्तर प्रदेश
शिक्षित भारत: कहा जाता है कि शिक्षा मानव के जीवन का आधार है। अगर मनुष्य के जीवन में शिक्षा नहीं है तो उसे पशु समान माना जाता है। भारत के लोग भी इस बात को बखूबी समझ रहे हैं और शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं। आंकड़े भी बताते हैं कि भारत के लोग शिक्षा के प्रति जागरूक हो रहे हैं। 1951 की जनगणना के अनुसार भारत में 100 लोगों में से केवल 18 साक्षर होते थे लेकिन इसमें लगातार वृद्धि होती गई और 2011 में यह संख्या बढ़कर 100 व्यक्तियों में 74 व्यक्ति हो गई। अगर बात महिलाओं की साक्षरता की की जाए तो 1951 में जहां 100 में से आठ महिलाएं ही साक्षर होती थीं वहीं 2011 में यह संख्या बढ़कर प्रति 100 महिलाओं पर 65 महिलाएं हो गई।
हर भारतवासी को अपने शिक्षा के अधिकार को समझना चाहिए। उसे खुद को और अपनी आने वाली पीढ़ी को शिक्षित बनाना चाहिए तभी हमारा देश उन्नत और समृद्ध बन पाएगा।
नीरज कुमार, नई दिल्ली
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