छह अगस्त से शुरू हुए खेलों के महाकुंभ रियो ओलंपिक में बारहवें दिन आखिरकार भारत की साक्षी मलिक ने महिलाओं की फ्रीस्टाइल कुश्ती के अट्ठावन किलोग्राम भार वर्ग में कांस्य पदक जीत कर भारत का पदकों का इंतजार खत्म करने में कामयाबी पाई है। इसके लिए वे निश्चय ही बधाई की हकदार हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि रियो ओलंपिक में अधिकतर भारतीय खिलाड़ियों का निराशाजनक प्रदर्शन सवा सौ करोड़ देशवासियों को बेहद मायूस करता रहा है। जिन खिलाड़ियों से उम्मीदें ज्यादा थीं और जिन पर सबकी निगाहें टिकीं थीं, उन्होंने भी देशवासियों को मायूस ही किया है।

बीजिंग ओलंपिक के स्वर्ण पदक विजेता अभिनव बिंद्रा से रियो में सबसे ज्यादा उम्मीदें थीं लेकिन दुर्भाग्यवश वे कांस्य पदक से भी चूक गए। जीतू राय के खराब प्रदर्शन से भी देशवासियों को धक्का लगा। इसके अलावा जर्मनी के खिलाफ हॉकी में अंतिम क्षणों में मिली हार ने तो बिल्कुल झकझोर कर ही रख दिया। हालांकि टीम का प्रदर्शन निस्संदेह काबिले तारीफ था और पदक से काफी दूर भी, लेकिन फिर भी हॉकी टीम ने जर्मनी को लोहे के चने चबवा दिए। जर्मनी की हॉकी टीम बीजिंग ओलंपिक 2008 और लंदन ओलंपिक 2012 में चैंपियन रही थी।

यह सही है कि हमारे अधिकांश खिलाड़ियों ने आशानुरूप प्रदर्शन नहीं किया जिससे देशवासियों में हताशा का साथ-साथ रोष का भाव पसरा हुआ है। यह कुछ हद तक स्वाभाविक भी है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि कोई कुछ भी, और बिना सोचे-समझे बोल दे। इसी बीच देश की एक मशहूर हस्ती शोभा डे का बयान आया कि हमारे खिलाड़ी रियो सिर्फ सेल्फी लेने गए हैं। यह बयान न सिर्फ रियो गए खिलाड़ियों, बल्कि सभी देशवासियों को शर्मसार कर देने वाला है। शोभा डे शायद नहीं जानतीं कि जब खिलाड़ी अच्छा प्रदर्शन न कर पा रहे हों तो उनका मनोबल बढ़ाना चाहिए न कि ऐसे बयान देकर नीचा दिखाना चाहिए जिससे उनका मनोबल और गिर जाए।

सुनील चौरसिया, हरकेश नगर, नई दिल्ली</strong>


छद्म गोरक्षक
चार अगस्त को लोकसभा में अनुपूरक मांगों पर चर्चा के दौरान भाजपा के हुकुम सिंह ने कहा कि गोरक्षा का विरोध करना एक फैशन बन गया है। गोरक्षा पर शोर करके कुछ लोग धर्मनिरपेक्ष जनता में भ्रम फैला रहे हैं। हुकुम सिंह से मेरा प्रश्न है कि गुजरात के उना कस्बे में मुर्दा जानवर की खाल उतार रहे चार दलितों की छद्म गोरक्षकों द्वारा बेरहमी से पिटाई और मध्यप्रदेश के मंदसौर जिले में गोमांस की अफवाह उड़ा कर दो मुसलिम महिलाओं की पिटाई आखिर कैसी गोरक्षा है?

गोरक्षा का कोई भी विरोध नहीं करता, गोरक्षा होनी चाहिए। लेकिन गोरक्षा के नाम पर जो किया जा रहा है वह सरेआम कानून अपने हाथ में लेकर की जा रही गुंडागर्दी है। अमेरिका ने भी इस गुंडागर्दी पर चिंता जताई है। ऐसी गुंडागर्दी से देश की छवि खराब हो रही है इसलिए इस पर तुरंत सख्ती से रोक लगाई जानी चाहिए।

आसिफ खान, बाबरपुर, शाहदरा, दिल्ली


अमन की राह
हाल ही में श्रीनगर से दिल्ली लौटते हुए विमान में एक सैनिक और एक कश्मीरी युवक राज्य के हालात जानने चाहे तो सैनिक का कहना था कि कश्मीर में हमें पाकिस्तान से नहीं बल्कि अपने ही नागरिकों से मोर्चा लेना पड़ रहा है, अपने ही कश्मीरी लोगों से पत्थरबाजी झेलना पड़ती है। अगर कभी कोई अकेला सैनिक इनके हत्थे चढ़ जाए तो उसका जिंदा बचना एक चमत्कार ही होता है। दूसरी ओर कश्मीरी युवक का कहना था कि सेना सिर्फ कश्मीरियों पर गोलीबारी करने के लिए है और इसी के लिए उसे वेतन मिलता है; सैनिकों की वर्दी देख कर दिल में मोहब्बत नहीं जागती बल्कि आक्रोश और क्रोध उपजता है कि ये हम पर गोलीबारी करने आए हैं।

इससे जाहिर है कि सेना और कश्मीरियों के अपने-अपने तर्क हैं और परस्पर अविश्वास ही इस अशांति की जड़ है। कश्मीरियों के दिमाग में अलगाववादियों द्वारा सेना के विरुद्ध एक सुनियोजित तरीके से विष भरा जाता है और फिर सेना को देखने का उनका नजरिया बदल जाता है। इसीलिए कश्मीर में सैनिक कॉलोनी बनाने के लिए जमीन नहीं दी जाती और राज्य में सरकारें किसी भी दल की रही हों, वे अलगाववादियों का मौन समर्थन करती हैं। ऐसे में हमें कश्मीरियों को विश्वास दिलाना होगा कि सेना सिर्फ सीमा पार से आने वाले आतंकियों से निपटने के लिए है और कश्मीरियों का हित अलगाववादियों से किनारा करने और सेना का समर्थन करने में ही है।

हरीशकुमार सिंह, उज्जैन


आधी आजादी
हम अंग्रेजों से तो आजाद हो गए लेकिन अपने-अपने पूर्वाग्रहों से आजाद नहीं हो पाए। आजादी के सात दशक बाद भी हम अपने रूढ़िवादी विचारों के बोझ तले दबे हुए हैं। आज भी भारत की आधी आबादी रूढ़िवादी सोच की शिकार है। भारत की आधी से ज्यादा बेटियों का हुनर घूंघट तले दबा हुआ है। हमारी होनहार बेटियां रूढ़िवादी समाज के कारण पाठशाला नहीं जा पातीं। यदि यह रूढ़िवादी पूर्वाग्रह समाप्त हो जाए तो हजारों दीपा कर्मकार ओलंपिक में अपना नाम रोशन करने का माद्दा रखती हैं। पर नहीं, हमारे समाज के आधे से ज्यादा लोगों को तो बेटियां घूंघट में ही अच्छी लगती हैं। क्या इसे आप आजादी कहेंगे?

हमारे लोकतंत्र पर जातिवाद हावी है। पार्टियां जातीय समीकरण को ध्यान में रख कर प्रत्याशी तय करती हैं। पहले अंग्रेजों ने धर्म के नाम पर लोगों को बांट कर राज किया अब नेता देशवासियों को जाति के नाम पर बांट कर राज कर रहे हैं। इसमें गलती हमारी है क्योंकि हम अपने-अपने पूर्वाग्रहों के शिकार हैं। जब तक पूर्वाग्रह से आजाद नहीं होंगे हमें कोई न कोई विभाजित करता रहेगा और हम पर राज करता रहेगा। आतंकवाद से लेकर नक्सलवाद तक तमाम समस्याओं की जड़ यह पूर्वाग्रह ही है। कोई धार्मिक पूर्वाग्रह का शिकार है तो कोई जातिगत पूर्वाग्रह का तो कोई क्षेत्रीय पूर्वाग्रह का शिकार है। जब तक इन पूर्वाग्रहों से आजादी नहीं मिलती, भारत की आजादी अधूरी है।

गिरिराज दुबे, नई दिल्ली