धर्मांतरण पर उठी बहसों के बीच संविधान के विश्वास या आस्था के अधिकार का सवाल उठना स्वाभाविक है। क्या किसी प्रलोभन से रहित आस्था या धर्म में परिवर्तन कोई अनुचित कृत्य है या वास्तव में वह राज्य का अपना एक अधिकार है? लोकतांत्रिक समाज में इसके क्या मायने हैं? हाल ही में आगरा में कुछ लोग धर्मांतरित होकर हिंदू बने तो अलग-अलग राजनीतिक दलों के नेताओं ने अपनी प्रतिक्रियाएं दीं। बहुजन समाज की मायावतीजी ने इसकी निंदा की। लेकिन यदि संवैधानिक स्तर पर इस घटना की व्याख्या की जाए और यदि धर्म परिवर्तन किसी भी दबाव या प्रलोभन के बिना स्वयं व्यक्ति का अपना निर्णय है तो कैसे गलत कहा जा सकता है?
यदि संदर्भ को बदल कर देखें तो बौद्ध या ईसाई होने पर क्यों विवाद नहीं होता? मध्यप्रदेश में एक पूर्व सरकार धर्मांतरण की सत्यता के लिए आयोग का गठन कर चुकी है जिसकी रिपोर्ट्स चौकाने वाली थीं। गरीब आदिवासी जब जीप को धकेलते तो उसके ब्रेक पर पांव रख कर कहा जाता था कि अपने गांव के देवता को याद करो लेकिन उनका नाम लेने पर भी जीप आगे नहीं जाती। फिर उनसे ‘क्राइस्ट’ का नाम लेकर धक्का लगवाया जाता तो जीप आगे बढ़ जाती। कारण था, विज्ञान। अब जीप से पांव हटाया जा चुका था। यानी व्यक्ति अपना आदिम विश्वास खो चुका था। ब्रिटिश लेखक आॅस्कर वाइल्ड मिशनरी को अफ्रीकी लोगों के लिए भेजा दैवी भोज कहा करते थे।
वहीं आर्च बिशप डेसमंड टूटू ने कहा कि जब मिशनरी अफ्रीका आए तो हमारे हाथ में तलवार और उनके हाथ में बाइबिल थी। उन्होंने हमें आंख बंद करने को कहा। आंख खोलने पर हमने पाया कि हमारे हाथ में बाइबिल है और उनके हाथ में तलवार। यानी हमारा शासन उनके हाथों में और उनका धर्म हमारे हाथों में। भारत में धर्मांतरण का सबसे बड़ा कारण आर्थिक कमजोरी रहा है। कोई भी समुदाय जिसने भी धर्म बदला उसमें और कोई अन्य स्वप्रेरक शक्ति कम ही रही है। छत्तीसगढ़ में ऐसे व्यक्ति भी मिल जाएंगे जिन्होंने आर्थिक मजबूरी के चलते एक माह में ही तीन बार धर्म बदल लिया, जैसे आदमी पैसा मिलने पर राजनीतिक पार्टी बदल लेता है। आखिर फिर हिंदुओं को अपने स्तर पर अन्य मतावलंबियों को दीक्षांतरित होने की अनुमति क्यों नहीं दी जा सकती? जब हम मदर टेरेसा को इस कारण आदर की दृष्टि से देखते हैं कि उन्होंने लाखों लाख अशक्त जनों के जीवन को सहारा दिया और रोगियों और पीड़ितों की सहायता की जिनके लिए अपनी आर्थिक बदहाली या शारीरिक रुग्णता के कारण धर्म से ज्यादा सेवा के संबल की आवश्यकता थी, तो फिर इस देश में यहां के मूल धर्म को मानने वाले मतावलंबियों के किसी प्रयास की निंदा क्यों? क्योंकि अपने धर्म में दीक्षित होने पर वे एक राजनीतिक औजार की तरह इस्तेमाल नहीं किए जा सकते। राजनीतिकों ने आज तक व्यक्ति की मूल आर्थिक समस्याओं को हल करने की बजाय उन्हें केवल इस्तेमाल किया तो उन्हें मदद देने वाले हाथ तो ज्यादा बेहतर हैं।
गांधीजी ने ब्रिटिश साम्राज्यवादियों से लड़ते हुए ईसाई मिशनरी द्वारा किए जाने वाले धर्मांतरण पर व्यग्रता के साथ सवाल उठाए थे क्योंकि वे इसे भी पश्चिमी साम्राज्यवाद की नीतियों का अंग मानते थे जो अपने अर्थों में गलत था भी नहीं। उन्होंने ओड़िशा में मिशनरी के जरिए धर्मपरिवर्तन की निंदा की थी। डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन हिंदुओं के किसी अन्य धर्म में अंतरण के विरोधी थे। 1954 में संसद में एक प्रस्ताव लाया गया था कि बौद्ध या ईसाई धर्म अपनाने वाले किसी हिंदू को आरक्षण का लाभ नहीं देना चाहिए क्योंकि वह साफ तौर पर इन धर्मों को अपना कर आर्थिक लाभ पाता ही है तो फिर शासकीय लाभ को हिंदू समुदाय के वंचित सदस्य को देना ही उचित होगा। यदि उस समय यह प्रस्ताव पारित हो जाता तो आज की आर्थिक राजनीतिक स्थितियां अलग होतीं। दरअसल, इतिहास की वर्ग संघर्ष व्याख्या से आगे जाकर इस मुद्दे की संवेदनशीलता समझते हुए इस पर गहन विमर्श आवश्यक है।
’सुमंत दीवान, होशंगाबाद
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