अरविंद दास की टिप्पणी ‘कहां है गांव’ (समांतर, 25 दिसंबर) पढ़ी। पी. साईनाथ की ‘तीसरी फसल’ पढ़ी, बेचैन कर देने वाली किताब है। खासकर हम विद्यार्थियों के लिए, जिनका बचपन पलामू, छतरपुर, गढ़वा, डालटनगंज जैसे नक्सल प्रभावित और अति पिछड़ी जगह में गुजर-बसर करते हुए बीता हो। मेरा मानना है कि अधिसंख्य शहरी लोग पैदाइशी सामंत होते हैं। उनका आत्मकेंद्रित चेहरा प्राय: शहरी दहलीज से आवाजाही करते उन लोगों को अवश्य सालता होगा, जो गांव से हैं या गांव की मिट््टी से बने-गुने हुए हैं।
शहरी समाज में संवाद, बहस-मुबाहिसे, विचार-चिंतन आदि सब कुछ नियोजित-प्रायोजित ढंग से घटित होता है। वे इंच भर मुस्कान तक की कीमत वसूलते हैं शायद! इसीलिए उनमें स्वाभाविक हास-परिहास, विनोद, व्यंग्य, चुहल आदि की न तो समझ होती है और न ही वे इसके महत्त्व को जानने-समझने का कोई प्रयत्न करते हैं। गांव और कस्बाई इलाके से आने वाले हम जैसे विद्यार्थी जानते हैं कि हमारा निधड़क बोलना-चालना, बड़ी आत्मीयता और बड़े लाड़ से अपनी कोई भी बात यों ही कह देना कइयों को नागवार गुजरता है; वे प्रशंसा भी चाहते हैं और प्रशंसा उलीचने का तहजीब और सलीका भी हमें बताना चाहते हैं।
महानगरीय जीवनशैली के आत्ममुग्ध ऐसे लोग चाहे कितने भी फिटफाट हों; इनमें से अधिकतर अंदर से मरे-बुझे हुए लोग ही होते हैं जिनकी जिंदगी में ऐश, मौज, लुत्फ, खुशी, आनंद सब कुछ दिखाई देता है, लेकिन वे अब भी अधूरेपन में जीते हैं, अजनबीयत उनका साथ नहीं छोड़ती।
गांव कई अर्थों में इनसे दूर हैं। गांव वाले कई मायनों में इनसे अधिक खुशनसीब हैं। तमाम दुश्वारियों के बावजूद वे मानवीयता बचाए रखने में जुटे हैं, जबकि बाहरी दबाव उनके मूलाधार पर लगातार प्रहार और चोट कर रहा है। वहां अभाव में भी आदर-भाव का सलीका, आगवानी का तौर-तरीका; पूरे जमाव के साथ बड़े-बुजुर्ग सभी का आपके कहे का अपने अनुसार भाव-अर्थ समझने की मुद्रा, भाव-भंगिमा, बोल-बर्ताव सब कुछ मोहक और मन को सुकून पहुंचाने वाला होता है। और मीडिया जिसकी सूरत, चाल-ढाल, रूआब-रुतबा सब कुछ नकली नकाब से बने हुए हैं; उससे तो यह अपेक्षा ही नहीं की जानी चाहिए कि वह गांव के बारे में कुछ सही और समझदार शब्दों में लिखेगा या रंगीन करते अजीबोगरीब दृश्यों, विज्ञापनों, सीरियलों में गांव का मर्म, दुख, टीस, हूक, संताप, यातना, शोषण, अत्याचार, भूख, गरीबी, पिछड़ापन, अशिक्षा, आदि को ‘वस्तुनिष्ठ/ निष्पक्ष’ ढंग से पूरे देश को बताएगा।
लेकिन वक्त सबसे बड़ा मरहम होता है और शक्तिमान भी। हमें पता है कि किसी भी खाद्य वस्तु को तब तक तैयार नहीं कह सकते, जब तक वह दोनों तरफ से सींझ न गया हो। इसलिए इक्कीसवीं सदी की वर्चुअलिटी में नहाई-उलझी यह ‘गुगलिया’ करम-करतब अधपके खाद्य पदार्थों की तरह ही भविष्य का हाजमा खराब कर सकती है। इससे बचाव का उपयुक्त तरीका यही है कि पी. साईनाथ जैसे जमीनी लेखकों-पत्रकारों की गांव संबंधी आर्त पुकार सुनी जाए; उनके द्वारा सुझाए जा रहे विकल्पों अथवा उपायों पर गौर फरमाया जाए; अन्यथा महानगरी जनजीवन को ही वास्तविक यथार्थ या एकमात्र सत्य मानने वाले के सोच का भूगोल बदलना और विनाशी खमियाजा भुगतना तय है।
अब अध्यात्म में भी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश हो चुका है या हो रहा है जिससे शहरीय मानस अधिक आप्लावित और अभिभूत है। दरअसल, यह खतरे की घंटी है।
नवसाम्राज्यवादी वर्चस्व की प्रभुत्ववादी प्रभाव जिससे अगर न सोचा गया तो हिंदुस्तान में मौलिक कुछ भी बचा रहना संभव नहीं है। क्या आप इससे इनकार कर सकते हैं?
राजीव रंजन प्रसाद, बीएचयू, वाराणसी
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