संपादकीय ‘अभद्रता का कारोबार’ (5 फरवरी) में सामाजिक-सांस्कृतिक पतन को रेखांकित करते हुए जो बातें कहीं हैं वे सही होते हुए भी इतनी सीमित हैं कि विद्रूपता पूरी तरह बेनकाब नहीं होती। दरअसल, शालीनता के साथ ये सीमाएं होना लाजिमी है वरना नालों में गंदगी कुछ अधिक ही बह रही है। मामला केवल फिल्मों या फूहड़ हास्य मंचों तक सीमित नहीं है। राजनीति, साहित्य और कुछ मायनों में धर्म के नाम को कलंकित करने वाली दुकानें भी बराबर की हिस्सेदार हैं। ऐसी कौन-सी गंदगी, कुकर्म, फूहड़ता, अश्लीलता और अपराध बचा है जो चुनावों के दौरान नहीं होता?

यह किसे नहीं मालूम कि गंदगी जितने ऊपर से फेंकी जाएगी वह उतनी ही दूर तक फैलेगी। राजनीति में और खासकर चुनाव प्रचार के समय आचरण, व्यवहार, भाषा, मनगढ़ंत किस्से प्रसारित करने, तथ्यों को झुठला कर सरासर झूठ बोलते हुए, लोकलाज और शालीनता को जब सरेआम पलीता लगाया जाता है तो आग केवल चुनाव प्रचार तक सीमित रहेगी यह मासूम विश्वास करने का कोई आधार नहीं हो सकता।

हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री का योगदान चुनावी गंगा को मैली करने में कितना है यह जानना किसी शोध या अध्ययन का मोहताज है क्या? क्या प्रधानमंत्री पद की गरिमा में यह रिकार्ड गिरावट नहीं है? चुनावी समर के दौरान सामाजिक जमीन पर जो बबूल बोए गए हैं वे आम की फसल कैसे दे सकते हैं?

श्याम बोहरे, भोपाल

 

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