अरुण जेटली जी के अनेक ऐसे मानवीय गुण हैं जो लोगों को अपनाने चाहिए। वे पैसे वाले थे, भारत के सबसे महंगे वकीलों में थे। पैसे वाले और भी बहुत लोग हैं पर उनमें कितने हैं जो अपने नौकरों, ड्राइवर, रसोइया, टाइपिस्ट आदि को मकान खरीद कर देते हैं? उनके बच्चों को उन्हीं स्कूलों में पढ़ाते हैं, जिनमें अपने खुद के बच्चे पढ़ते हैं? जेटलीजी ने हमेशा ऐसा किया। यही नहीं, यदि किसी नौकर का बच्चा होनहार होता था और विदेश में पढ़ना चाहता था, तो जेटलीजी ने उसे विदेश भी भेजा। और भी कई लोगों की उन्होंने आर्थिक मदद की और करके भूल गए। कितनों के लिए वे फरिश्ते जैसे सिद्ध हुए, और इन बातों का अपने जीवनकाल में कभी प्रचार नहीं किया। उनकी स्मृति सदा नमन।
’अजय मित्तल, मेरठ, उत्तर प्रदेश

पुनर्पूंजीकरण के बजाय

हाल ही में वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने 70 हजार करोड़ रुपए से बैंकों के ‘पुनर्पूंजीकरण’ का फैसला किया है। यह सही है कि बैंकिंग क्षेत्र गैर निष्पादित परिसंपत्तियां (एनपीए) के संकट का सामना कर रहा है और उसे सरकार से राहत की दरकार है। लेकिन प्रश्न यह उठता है कि आखिर कब तक? सरकार के लिए अब जरूरी हो गया हैं कि बैंकिंग क्षेत्र से अपनी शेयरधारिता कम करे और निजी क्षेत्र की भूमिका बढ़ाए ताकि बैंकों का सफल परिचालन, क्रियान्वयन हो। उन्हें राजनीतिक दबाव से मुक्ति मिले और वे अपनी क्षमताओं में वृद्धि कर सकें। यही अर्थव्यवस्था के सुदृढ़ीकरण की नींव है। मौजूदा दौर में यह आवश्यक हो गया है कि सरकार बार-बार करदाताओं के पैसों से बैंकों के पुनर्पूंजीकरण की नीति को त्यागे। वह अपने वित्तीय संसाधनों में वृद्धि कर जनमानस की कल्याणकारी योजनाओं पर खर्च को बढ़ाए और भविष्य की जरूरतों के अनुसार विकासात्मक कार्यों पर बल दे ताकि उनका जीवन स्तर सुधर सके।
’कपिल एम वड़ियार, पाली, राजस्थान</p>

मुफ्त का फंदा
अपने देश में चुनाव के पहले नेताओं द्वारा मुफ्त में कुछ देने की घोषणा करने का चलन रहा है। चूंकि जनता मुफ्त में कोई भी वस्तु पाना पसंद करती है तो नेता भी इस बात का फायदा उठाते हैं। ज्यादातर नेता वोट पाने के लिए जनता को मुफ्त की चीजों का लालच देते रहे हैं। किसी नेता ने मुफ्त लैपटॉप बांटे तो किसी ने बिजली-पानी मुफ्त कर दिए। हाल ही में एक राष्ट्रीय पार्टी के पूर्व अध्यक्ष ने तो साल में 72000 रुपए देने की घोषणा कर डाली थी। अभी-अभी एक मुख्यमंत्री ने महिलाओं को मेट्रो में मुफ्त सफर का लालच दिया है। समझने वाली बात है कि कोई भी चीज मुफ्त नहीं होती, उसकी अपनी कीमत होती है। ये नेता अपनी जेब से तो कुछ देते नहीं। इसका खमियाजा आम करदाता को भुगतना पड़ता है। तो इन नेताओं को क्या हक है कि आम आदमी से वसूले गए करों के पैसे को यों लुटा दें? दूसरी बात, मुफ्त में पाने की आदत से तो लोग नाकारा ही बनेंगे और यह आदत देश को पीछे धकेलने का काम करेगी। इसलिए कानून बनाया जाए कि कोई भी नेता जनता को मुफ्त का लालच न दे। वोट चाहिए तो नेता काम करें, देश को मजबूत करें।
’बृजेश श्रीवास्तव, गाजियाबाद