आजाद भारत के प्रथम शिक्षा मंत्री, अजीम शायर और शिक्षाविद मौलाना अबुल कलाम आजाद के जन्मदिवस ग्यारह नवंबर को शिक्षा दिवस के रूप में मनाया गया। यह शिक्षा के क्षेत्र में किए गए उनके अथक प्रयास के लिए कृतज्ञ राष्ट्र का नमन है। लेकिन क्या पूरे साल में एक दिन शिक्षा दिवस के नाम पर महज ट्वीट कर देने और कुछ भाषण कर देने की औपचारिकता भर से देश ‘शिक्षित’ हो पाएगा? गौरतलब है कि आजादी के समय बारह प्रतिशत भारतीय ‘साक्षर’ थे और आज सत्तर साल बाद चौहत्तर प्रतिशत भारतीयों को हम ‘साक्षर’ कर पाए हैं! यह गर्व का नहीं, बल्कि बेहद शर्म का विषय है, क्योंकि ‘साक्षर’ होने का मतलब अपना नाम लिख-पढ़ सकने में समर्थ होना है। ‘साक्षर’ होना एक बात है और ‘शिक्षित’ होना बहुत दूर की बात!
अमर्त्य सेन ने कहा है कि गरीबी सभी समस्याओं की जड़ है। हमारी समझ है कि गुणवत्तापूर्ण शिक्षा सभी समस्याओं का हल है। लेकिन गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तब असंभव हो जाता है, जब हमारी कल्याणकारी सरकारें शिक्षकों की कम वेतन पर बहाली करने का जुगाड़ संविदा पर शिक्षकों की बहाली के रूप में निकाल लाती हैं। क्या बच्चों को महीने-दो महीने शिक्षा देनी है? अगर नहीं तो शिक्षकों की बहाली संविदा पर क्यों? ऐसे हालात में कोई मेधावी विद्यार्थी क्यों शिक्षक बनना चाहेगा? हम सभी अपने बच्चों के लिए अच्छे शिक्षक तो चाहते हैं, पर ये नहीं चाहते कि हमारा बच्चा बड़ा होकर शिक्षक बने! आखिर क्यों? क्यों नहीं सरकारें शिक्षकों की स्थायी नौकरी और अच्छा और आकर्षक वेतन देने की बात करती है, ताकि देश और समाज के भविष्य हमारे बच्चों को अच्छे शिक्षक और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा नसीब हो सके।
संविदा पर कम वेतन वाले कथित शिक्षा-‘मित्रों’ की बहाली और उन्हें भी चुनाव, जनगणना, स्कूल भवन निर्माण जैसे गैर-शैक्षणिक कार्यों में लगा कर सरकार किसका नुकसान करना चाहती है? उन बच्चों के भविष्य का, जो भारत के भविष्य हैं। आज आजादी के पचहत्तरवें वर्ष 2022 तक ‘नवभारत’ के निर्माण की बात की जा रही है, लेकिन एक बात बिल्कुल साफ है कि बिना ‘शिक्षित भारत’ के ‘नवभारत’ खोखला ही होगा।इसलिए सरकार की प्राथमिकता गुणवत्तापूर्ण शिक्षा सुलभ करवाना होना चाहिए। शिक्षा एक ऐसा उपकरण है, जिससे बेरोजगारी दूर हो सकती है और फिर गरीबी। इसके बाद अपने आप स्वच्छ भारत, सशक्त भारत, निरोग भारत, विकसित और खुशहाल भारत भी हकीकत होगा।
गौरतलब है कि शिक्षा के क्षेत्र में अध्ययन के लिए गठित कोठारी आयोग ने सिफारिश की थी कि शिक्षा पर सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी का कम-से-कम छह प्रतिशत खर्च किया जाए। वैश्विक औसत भी शिक्षा पर जीडीपी का 5-6 प्रतिशत खर्च का है। वहीं भारत सरकार लगातार शिक्षा के बजट को घटाती जा रही है। 2017-18 वित्त वर्ष में यह जीडीपी का महज 3.7 प्रतिशत ही है, जो आवश्यकता के अनुसार ऊंट के मुंह में जीरा के समान है।एक बार जर्मनी में राजनेता और अफसरों ने सरकार पर इस बात का दबाव बनाया कि उनका वेतन शिक्षकों से कम क्यों है? इसे बढ़ाया जाना चाहिए। तब वहां के चांसलर एंजेला मर्केल ने अफसरों और नेताओं को समझाया कि शिक्षक की दी हुई शिक्षा के बूते ही हम और आप आज इस मुकाम पर हैं, इसलिए उनका वेतन ज्यादा है और होना भी चाहिए।
’चंद्र प्रकाश चक्रवर्ती, नई दिल्ली</p>