हाल ही में फिल्म ‘सरबजीत’ ने एक भयावह तस्वीर हमारे सामने प्रस्तुत की, जिसमें हमने देखा कि कैसे पाकिस्तान की जेलों में बंद बेकसूर भारतीयों पर अत्याचार कर उन्हें आतंकवादी बना दिया जाता है और जिंदगी भर वे या तो जेलों में पड़े रहते हैं या फांसी पर चढ़ा दिए जाते हैं। खैर, वह तो पराया देश है लेकिन हालिया मसला कर्नाटक के नासिर का है, जिन्हें तेईस साल बाद सुप्रीम कोर्ट ने बरी किया है।
इससे एक बार फिर यह हकीकत सामने आई है कि हमारे देश की जेलों में हमारे ही ऐसे नागरिक बंद हैं जिन्हें सालों बाद बेकसूर बताकर बरी कर दिया जाता है। क्या हमने कभी पूछा कि किसी मामले में झूठा फंसाने वाले अधिकारियों पर कार्रवाई क्यों नहीं होती? उन्हें तो जैसे छूट दी गई है कि किसी की भी जवानी के तेईस साल एक शक के आधार पर खत्म कर सकते हैं।
नासिर की सजा के गुनहगार हम भी हैं जो किसी अखबार में पुलिस की छपवाई तस्वीर को ही मान लेते हैं कि यही उस घटना का असली दोषी है, सिर्फ इसलिए कि उसका नाम एक खास समुदाय के नामों में से है। हम भी नहीं पूछते कि किन आधारों पर इन्हें गिरफ्तार किया गया। हमें बस कोई एक चेहरा चाहिए होता है जिसके नाम से यकीन कर लें कि यही दोषी है। नासिर जैसे मामले कुछ अंतराल के बाद आते-जाते रहते हैं। और हम क्या करते हैं? नासिर के तेईस दर्दनाक सालों से सहानुभूति प्रकट करते हुए खुद भी डरने लग जाते हैं। क्या कहीं से कोई आवाज उठती है उन दोषियों की सजा के लिए जिन्होंने वर्दी पहन कर इनकी जिंदगी बर्बाद की?
विनय कुमार, लखनऊ</strong>