हमलोग बचपन से सुनते आ रहे हैं कि रोजगार नहीं मिलने से देश में बेरोजगारी की संख्या लगातार बढ़ रही है। जितने लोग रोजगार में थे भी, वे लोग कोरोना जैसी महामारी के चलते उपजी परिस्थितियों में भयावह बेरोजगारी का शिकार हो चुके हैं। आर्थिक गतिविधियां बंद रहने से सब कारोबार ठप हो गए थे। अब भी हालात पूरी तरह सामान्य नहीं हुए हैं। रोजगार की तलाश में बड़े-बड़े महानगरों में युवा भटकते नजर आ रहे हैं।

सरकारें इस समस्या की तरफ ध्यान नहीं दे रही हैं। बड़े-बड़े भाषण और वादे से बेरोजगारी खत्म नहीं होती। कई सरकारें आईं और गईं, मगर दुखद है कि बेरोजगारी की हालत में कोई सुधार नहीं हुआ। पूर्णबंदी में ऐसे अनेक मामले सामने आए जिनमें रोजगार न मिलने पर कई लोगों ने आत्महत्या का रास्ता चुन लिया। यह छिपा नहीं है कि बहुत सारे लोगों ने आत्महत्या तो नहीं की, लेकिन उनकी जिंदगी आज महज गुजारे के संकट से दो-चार है। रोजगार मिलने पर ही लोगों की क्रयशक्ति बढ़ सकती है और उसके बाद ही देश आर्थिक विकास की पटरी पर आगे बढ़ सकेगा। अगर सक्षम युवाशक्ति का उपयोग समय पर देशहित में नहीं किया गया, तो इसका नुकसान किसे झेलना पड़ेगा?
’शाइस्ता सिद्दिकी, भागलपुर, बिहार

स्त्री के विरुद्ध
जिस समाज में धर्मांधता जितनी अधिक होगी, उस समाज में महिलाओं का उत्पीड़न उतना ही अधिक होगा। अब तो धर्म का इस्तेमाल खुल्लमखुल्ला राजनीति में होने लग गया है। दुनिया के कई देश ऐसे हैं जहां धर्म की आड़ में सत्ता का बागडोर अपने हाथों में रखने में राजनेता कामयाब हुए हैं। एक ऐसा ही देश है तुर्की। यहां के राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप अर्दोआन ने पिछले दिनों ‘महिलाओं के खिलाफ हिंसा पर इस्तांबुल समझौते से अपने देश को अलग कर लिया, क्योंकि रूढ़िवादी धर्माधिकारियों को यह पसंद नहीं था कि अगर कोई औरतों पर अत्याचार करे तो उन्हें कानून सजा दे।

तुर्की का इस समझौते से अलग होने का मतलब ही है कि औरतों को प्रताड़ित किए जाने के मसले पर वह वैश्विक रुख के साथ नहीं है। ऐसे मामलों के दौरान सरकार और कानून तमाशबीन बने रहेंगे। ऐसे समय में जब लैंगिक समानता पर दुनिया आहिस्ता-आहिस्ता ही सही, आगे बढ़ रही है, तुर्की का पीछे की तरफ जाना समझ से परे है। आशा करनी चाहिए कि अगले चुनाव में अर्दोआन को एक भी महिला का वोट नहीं मिलेगा।
’जंग बहादुर सिंह, जमशेदपुर, झारखंड