सांसों के स्पंदन से युक्त इस पृथ्वी और इस भूमंडल पर जन्म लेने वाली एक नन्ही चींटी से लेकर इस जैवमंडल की सबसे बड़ी स्तनपायी जीव ह्वेल तक को जीने का उतना ही अधिकार और हक है, जितना हम मनुष्य प्रजाति को। मनुष्य प्रजाति को यह कतई अधिकार नहीं है कि वह अपने लाभ-हानि और उपयोगिता-अनुपयोगिता के हिसाब से यह निर्धारित करे कि इस धरती पर कौन जीव रहे और कौन न रहे? पुरातात्विक वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों के अनुसार अब यह सिद्ध हो चुका है कि अगर हम मान लें कि इस धरती पर जीवों को आए हुए कुल चौबीस घंटे हुए हैं, तो मानव प्रजाति को इस धरती पर आए हुए मात्र एक सेकेंड ही हुआ है!
वैज्ञानिक शोधों से यह भी साबित हो चुका है कि मनुष्य अपने धरती पर आने के इतने अल्प समय में ही इस धरती, इसके जैवमंडल, इसके समुद्रों, जंगलों, पहाड़ों, नदियों, जलाशयों और यहां तक कि पृथ्वी के आसपास के अंतरिक्ष को भी इतना प्रदूषित और इतना नुकसान पहुंचा चुका है, जितना अरबों सालों से पृथ्वी के अन्य सभी जीवों ने नहीं पहुंचाया था। यह भी कड़वा सत्य है कि मानव जैसे-जैसे अपना कथित विकास कर रहा है, उसी के अनुपात में इस धरती, इसकी लाखों-करोड़ों सालों से प्रकृति के अकथ्य परिश्रम से बनाई गई इसकी वन्य और जैवमंडल शृंखला, पर्यावरण और इस पर उपस्थित अन्य सभी वन्य जीवों का विलोपन भी उसी तेज गति से कर रहा है। इसी क्रम में जीव वैज्ञानिकों के अनुसार हमारे घर-आंगन की प्यारी, नन्ही-मुन्नी पारिवारिक सदस्य गौरैया भी भारत सहित पूरी दुनिया भर में करीब अस्सी फीसद तक तक विलुप्त हो चुकी है।
अगर हम चाहते हैं कि इसे फिर से पुनर्जीवन दिया जाए तो हमें यह प्रतिज्ञा करनी होगी कि हम प्रतिदिन सुबह अपने घर के खुले स्थानों यथा बरामदा या छत आदि पर एक कटोरी साफ पानी अवश्य रखेंगे। किसी ऊंचाई वाले स्थान, जैसे बरामदे के खंभों या छज्जे के नीचे एक घोंसला बना कर जरूर टांगेगे। अपने घर में बने बचे हुए चावल, रोटी या किसी भी भोज्यपदार्थ को फेंकने के बजाय उसे खुली छत या आसपास के पार्कों में एक किनारे डाल दिया करेंगे। अपने घर के आसपास एक-दो पेड़ लगा कर उसे पाल-पोस कर बड़ा जरूर करेंगे।
हम भारत सरकार से यह भी निवेदन भी करते हैं कि जैसे विलुप्त होते बाघों के वंश को बचाने के लिए देश भर में जगह-जगह बाघ अभयारण्य बनाए गए हैं, उसी की तर्ज पर विलुप्ति के कगार पर पहुंची गौरैयों को बचाने के लिए भी देश भर में जगह-जगह छोटे-छोटे ‘गौरैया अभयारण्य’ बनाए जाएं।
इसके लिए शहरों, महानगरों से दूर किसी ऐसी मानव बस्ती का चुनाव करना होगा, जहां मोबाइल टावरों का जाल न हो। वहां खूब पेड़-पौधे और झाड़ियां हों, जहां साल भर अविरल रूप से बहने वाला एक प्रदूषणमुक्त प्राकृतिक जलस्रोत हो।
गौरैयों का जहां बसेरा हो, वहां से उतनी दूरी पर मोबाइल टावरों को लगाने का प्रावधान और सख्त होना चाहिए, जरूरत पड़ने पर सख्त कानून बनना चाहिए, ताकि मोबाइल टावरों से निकलने वाली तीव्र रेडिएशन किरणों से गौरैयों के अंडों, उनके बच्चों और स्वयं उनके स्वास्थ्य पर भी कोई गंभीर खतरा पैदा न हो।
जीव वैज्ञानिकों के अनुसार प्रदूषण, कंक्रीट के घरों की बनावट, कीटनाशकों के प्रयोग के अतिरिक्त गौरैयों के विलुप्तिकरण में मोबाल टावरों यसे निकलने वाली घातक रेडिएशन किरणें भी एक प्रमुख कारण हैं।
’निर्मल कुमार शर्मा, गाजियाबाद, उप्र