भारत अपनी आजादी का अमृत महोत्सव मना रहा है। जिस समय संविधान की रूपरेखा तैयार की गई, यह सुनिश्चित किया गया कि किसी भी संवैधानिक पद पर बैठे लोग न किसी धर्म, जाति और भाषा के आधार पर भेदभाव करेंगे और न ही ऐसे कोई काम करेंगे, जिससे देश की गरिमा और आभा एक राजनीतिक दल अथवा नेता तक सीमित हो।
हालांकि ताज्जुब की बात यह है कि सभी सरकारें, भले ही वे लोकतांत्रिक तरीके से चुनी जाती हैं, लेकिन उनका झुकाव किसी विशेष वर्ग के तरफ अक्सर देखा, पढ़ा और समझा जाता रहा है। वर्तमान समय में देश की बागडोर संभाले देश के प्रधानमंत्री की छवि को भी धर्म हित से जोड़कर देखा जा रहा है।
यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि पिछले कुछ वर्षों जिस तरह के माहौल बन रहे हैं, उससे यह आभास होने लगा है कि अगर प्रधानमंत्री का समर्थन नहीं किया गया या फिर उन्हें वोट नहीं दिया गया तो यह देशद्रोह और धर्म विरुद्ध जैसा लगने लगेगा। यह अत्यंत दुखद और गंभीर विषय है, जहां एक ओर लोकतंत्र में विपक्ष को सराहा जाता है, वहीं दूसरी ओर इस तरह की बयार चलायी जाती है।
भारतीय संविधान प्रत्येक नागरिकों को असहमति का अधिकार देता है, लेकिन इसको किसी और तरीके से समझना और उसके खिलाफ कार्रवाई करना गलत है। चुनाव के समय अक्सर इस तरह का माहौल देखने को मिलता है। अगर प्रधानमंत्री कल को अपना पद छोड़ते हैं तो क्या देश और धर्म खतरे में पड़ जाएगा!
’अमन जायसवाल, दिल्ली विवि, दिल्ली