क्या यही है हमारा आतंकियों के प्रति ‘शून्य सहनशीलता’? हम अपने घोषित सिद्धांत से कैसे पीछे हटते जा रहे हैं? तीस दिनों के अंदर दूसरी बार भारत, आधिकारिक रूप से, तालिबान के साथ वार्ता की मेज पर बैठ रहा है। पहले दोहा में दीपक मित्तल ने तालिबान के उप-विदेश मंत्री शेर मोहम्मद अब्बास स्टानिकजई के साथ बैठक की। अब मास्को में हमारे विदेश मंत्रालय में संयुक्त सचिव जेपी सिंह के नेतृत्व में, प्रतिनिधिमंडल मास्को में बैठक करता है। इसका मतलब क्या समझा जाए?
क्या भारत तालिबान को मान्यता देने के कगार पर पहुंच गया है? मास्को बैठक में दस देशों में चीन, पाकिस्तान के साथ रूस तो है ही। ये देश पहले दिन से ही तालिबान के साथ खड़े हैं। यह जानते हुए भी भारत उस बैठक में गया, जो पूर्व निर्धारित थी कि थोड़ा डांट-फटकार, नाटक करके, तालिबान के साथ काम करने को तैयार हो जाएंगे? अगर भारत मान्यता देता है तो यह उसकी विदेश नीति के लिए ऐतिहासिक रूप से घातक सिद्ध होगा।
’जंग बहादुर सिंह, गोलपहाड़ी, जमशेदपुर