हिंदुस्तान को अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त कराने के लिए और देश के प्रति जनता में भावनात्मक और क्रांतिकारी जोश पैदा करने के लिए इंकलाब जिंदाबाद, वंदे मातरम, भारत माता की जय जैसे नारों का प्रयोग किया जाता था। उस वक्त इस तरह के नारे देश के भीतर सभी धर्मों के लोगों को जोड़ने का काम करते थे। वंदेमातरम किसी धर्म विशेष या संगठन का नारा नहीं, बल्कि देशभक्ति को प्रेरित करता था।

साल 2014 में दिल्ली के रामलीला मैदान में अन्ना हजारे के आंदोलन में भारत माता की जय और वंदे मातरम जैसे नारे खूब गूंजे थे। उस समय ऐसा माहौल बना दिया गया था कि मानो देश गुलामी में जकड़ा हुआ है और देश को इससे मुक्ति दिलाने की जरूरत है। लेकिन दुर्भाग्य है कि आजादी के बाद राष्ट्रीय प्रतीकों और नारों का इस्तेमाल राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किया जाने लगा और अंतत इसे सत्ता पर अपनी पकड़ बनाने के लिए हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाने लगा। अब तो स्तिथि यह है कि ये नारे देश भक्ति का पैमाना बना दिए गए हैं। पर ऐसी देश भक्ति की असलियत किसी से छिपी नहीं है।

जनता की देश भक्ति को झंडों और नारों के इर्दगिर्द ही उलझा कर रख दिया है ताकि लोग सरकार से सवाल करने के बारे में सोच भी न सकें। जिसने भी सरकार की किसी खामी पर उंगली उठाई, वह देशद्रोही हो गया। हाल में दिल्ली सरकार ने तो कट्टर देशभक्ति वाला बजट तक पेश कर दिया। ऐसे में देशभक्ति के नारों की आड़ में की जाने वाली राजनीति इनकी पवित्रता को खत्म कर देती है।
’मोहम्मद आसिफ, जामिया नगर, दिल्ली

जिद का आंदोलन

किसान आंदोलन को चार महीने पूरे हो चुके हैं। लेकिन अब तक कोई समाधान न निकल पाना संकट को और गंभीर बनाता जा रहा है। आंदोलन लंबा खिंचने से किसानों पर ही नहीं, आम जनजीवन पर भी असर तो पड़ ही रहा है। किसान संगठनों और सरकार दोनों की हठ से जनता के बीच दोनों की छवि बिगड़ रही है। ये दोनों के हित में ठीक नहीं है। आंदोलन लंबा चलने से देश का भी आर्थिक नुकसान हो रहा है। देश पहले से ही कोरोना महामारी की दिक्क्तों से जूझ रहा है। ऐसे में किसान संगठनों और सरकार को मिल बैठ कर रास्ता निकालने पर फिर से विचार करना चाहिए।
’शकुंतला महेश नेनावा, इंदौर (मप्र)

हक के लिए

सुप्रीम कोर्ट ने सेना में महिलाओं को स्थायी कमीशन दिए जाने और इस मामले में सेना व सरकार द्वारा ढुलमुल रवैया अपनाने पर सख्त रुख दिखाया है। बकौल अदालत, पिछले कई वर्षो से महिलाओं को स्थायी कमीशन से वंचित रखा जा रहा है। बार-बार बहाने बनाए जा रहे हैं। कभी कहा जाता है उन्हें सीधे युद्ध के मोर्चे पर नहीं भेजा जा सकता, तो कभी कहा जाता है कि हमें उनकी सुरक्षा की चिंता है। हकीकत चह है कि ये सारे बहाने पितृसत्तात्मकता वाली मानसिकता से जुड़े हैं। भले ही हम तकरीरों में, लेखों में, सभाओं में महिला पुरुष को बराबरी का दर्जा दें, बेटी पढ़ाओ बेटी बचाओ का नारों से देश को पाट दें, बेटी को देवी का दर्जा देने की बातें क्यों न करें, पर हकीकत यही है की महिलाएं आज भी दोयम दर्जा का दंश झेल रही हैं।
’जंग बहादुर सिंह, गोलपहाड़ी,जमशेदपुर